रौशनी के वरक

लुटाये गये रौशनी के वरक चारसू
कभी निख़त की है नज़र, आ रहे तैरग़ी के वरक चारसू

आजकल ज़िन्दगी का उफक ज़र्द है
खिज़ाँ की हंसी के वरक चारसू

अजनबी रास्ते, अजनबी मंजिले राहबर का भरोसा नहीं
खो न जायें कहीं ज़िन्दगी के वरक चारसू

फर्द की ज़ात से मेहर इन्सानियत का चमकता रहा
बिखरते रहे इल्म की चाँदनी के वरक चारसू

इक जुनूं खेज़ जज़्बे की तशहीर थी
यूँ तो फैले रहें आगही के वरक चारसू

फलसफा ज़ात का और अना का न मखसूस कर “सानी” इस दौर से
मीरो ग़ालिब से लेकर यहाँ तक खुदी के वरक चारसू
 لٹائے گئے روشنی کے ورق چار سو
کبھی بخت کی ہے نظر آرہے تیرگی کے ورق چار سو

آج کل زندگی کا افق زرد ہے
خزاں کی ہنسی کے ورق چار سو

اجنبی راستے اجنبی منزلیں راہ بر کا بھروسہ نہیں
کھو نہ جائیں کہیں زندگی کے ورق چار سو

فرد کی ذات سے مہر انسانیت کا چمکتا رہا
بکھرتے رہے علم کی چاندنی کے ورق چار سو

اِک جنوں خیز جذبے کی تشہیر تھی
یوں تو پھیلے رہے آگہی کے ورق چار سو

فلسفہ ذات کا اور انا کا نہ مخصوص کر ثانیؔ اس
دور سے
میرؔ و غالبؔ سے لے کر یہاں تک خودی کے ورق چار سو
This azad ghazal was published in the magazine “Shiraza”

सरहद पर जाते हुये महबूब से

मेरे महबूब मेरी जाने तमन्ना रुखसत
मेरे अरमान! मेरी प्यार की दुनिया रुखसत
मैं हूं नाशाद मगर मेरा वतन शाद रहे
मादरे हिंद करे तेरा तकाज़ा रुखसत

मुस्कुराहट मेरी बेजान हुयी जाती है
दिल की दुनिया भी तो सुनसान हुयी जाती है
अपने अश्कों के चिराग़ों से चिराग़ाँ कर लूं
बज़्मे आरास्ता वीरान हुई जाती है

ताज़गी चेहरे पे छायी ग़मे वहशत के लिये
मुझको ये वस्ल मिला था तेरी फुर्कत के लिये
चशमे पुरनम दिले बेताब ग़िरफ्तारे अलम
बारेग़म क्या न उठायें हैं मोहब्बत के लिये

अब सदा शिकवा ए तक़दीर किये जाती हूँ
अपनी मजबूरी व तन्हाई पे थर्राती हूँ
किस तरह ये ग़मे फुर्कत मैं उठाऊं हमदम
तेरी फुर्कत के तसव्वुर से लरज़ जाती हूँ

राहते रूह व जिगर जान ए मोहब्बत रुखसत
मेरी बरबादशुदा दिल की मसर्रत रुखसत
गुलशने “सानी” का शिराज़ा बिखर जायेगा
फिर भी ए जान-ए-जहाँ बज़्म की जीनत रुखसत

میرے محبوب مری جانِ تمنا رخصت
میرے ارمان! میری پیار کی دنیا رخصت
میں ہوں ناشاد مگر میرا وطن شاد رہے
مادرِ ہند کرے تیرا تقاضہ رخصت

مسکراہٹ میری بے جان ہوئی جاتی ہے
دل کی دنیا بھی تو سنسان ہوئی جاتی ہے
اپنے اشکوں کے چراغوں سے چراغاں کرلوں
بزم آراستہ ویران ہوئی جاتی ہے

تازگی چہرے پہ چھائی غم وحشت کے لئے
مجھ کو یہ وصل ملا تھا تری فرقت کے لئے
چشم پُرنم دل بے تاب گرفتارِ الم
بارِ غم کیا نہ اٹھائے ہیں محبت کے لئے

اب سدا شکوہئ تقدیر کئے جاتی ہوں
اپنی مجبوری و تنہائی پہ تھراتی ہوں
کس طرح یہ غم فرقت میں اٹھاؤں ہمدم
تری فرقت کے تصور سے لرز جاتی ہوں

راحتِ روح و جگر جان محبت رخصت
میرے برباد شدہ دل کی مسرت رخصت
گلشن ثانیؔ کا شیرازہ بکھر جائے گا
پھر بھی اے جانِ جہاں بزم کی زینت رخصت
This nazm was published in December 1963 (publication unknown)

मेरी सुबह हो के न हो मुझे है फिराक़ से वास्ता

मेरी सुबह हो के न हो मुझे है फिराक़ यार से वास्ता
शबे ग़म से मेरा मुकाबला दिले बेकरार से वास्ता

मेरी जिन्दगी न संवर सकी मेरे ख्वाब सारे बिखर गये
मैं खिजाँ रसीदा कली हूँ अब मुझे क्या बहार से वास्ता

जो था हाल ज़ार वो बिखर चुकी मगर अब खुशी है ये आपकी
कि जवाबे खत मुझे दें न दें, मुझे इंतिज़ार से वास्ता

मेरे इश्क में ये नहीं रवा कि खुलूस प्यार का लूँ सिला
कहूं क्यूँ मैं आपको बेवफा मुझे अपने प्यार से वास्ता

बड़ी बेखुदी में निकल पड़ी ए “ज़रीना” खैर हो राह की
जहां काफिले लुटे रोज़ो-शब उसी रहगुज़र से वास्ता
مری صبح ہو کہ نہ ہو مجھے ہے فراق یار سے واسطہ
شب غم سے میرا مقابلہ دل بے قرار سے واسطہ

مری زندگی نہ سنور سکی مرے خواب سارے بکھر گئے
میں خزاں رسیدہ کٹی ہوں اب مجھے کیا بہار سے واسطہ

جو تھا حال زار وہ لکھ چکی مگر اب خوشی ہے یہ آپ
کی
کہ جواب خط مجھے دیں نہ دیں، مجھے انتظار سے واسطہ

مرے عشق میں یہ نہیں روا کہ خلوص، پیار کا لوں
صلہ
کہوں کیوں میں آپ کو بے وفا مجھے اپنے پیار سے واسطہ

بڑی بے خودی میں نکل پڑی اے زرینہ ؔخیر ہو راہ کی
جہاں قافلے لٹے روز و شب اسی رہگذار سے واسطہ
This ghazal was published in “Aasar”, Calcutta in February 1961

ज़िन्दगी की हसीन और शादाब वादी

ज़िन्दगी की हसीन और शादाब वादी में रहकर भी जलती रही
एक लायनी तक़दीज़ के वास्ते खून अपनी तमन्ना का पीती रही

चांद का अक्स लहरों पर गिरकर बिखरता रहा
उनकी नज़रों के गहरे समंदर में, मेरी मोहब्बत यूं ही टूटती और बिखरती रही

सदक औ अखलास का कुछ पता ही न था, मुनकशिफ ये हुआ
सिर्फ झूठे वक़ार व नुमाइश की खातिर गुनाहों से बचती रही

हर तरफ रंगो-निखत का सैलाब था, दावते कैफ थी
ज़ात के खोल में बंद, मैं अपनी तन्हाइयों में सिसकती रही

“हर तरफ सब्ज़े रंगत का तूफान है क्यूं नुमाया तुम्ही ज़र्द रंगत में हो”
रूह को ताज़गी, जिन्दगी को खुशी अज़्मो हिम्म्त से मिलती रही

कौल और फेल का फर्क “सानी” ज़रा देखिये
इत्हादो मोहब्बत का नग़्मा लबों पर रहा, आग नफरत की दिल में दहकती रही
زندگی کی حسین اور شاداب وادی میں رہ کر بھی جلتی رہی
ایک لایعنی تقدیس کے واسطے خون اپنی تمنا کا پیتی رہی

چاند کا عکس لہروںپہ گر کر بکھرتا رہا
ان کی نظروں کے گہرے سمندر میں ، میری محبت یونہی ٹوٹتی او ربکھرتی رہی

صدق و اخلاص کا کچھ پتہ ہی نہ تھا، منکشف یہ ہوا
صرف جھوٹے وقار و نمائش کی خاطر گناہوں سے بچتی رہی

ہر طرف رنگ و نکہت کا سیلاب تھا دعوتِ کیف تھی
ذات کے خول میں بند ، میں اپنی تنہائیوں میں سسکتی رہی

”ہر طرف سبز رنگت کا طوفان ہے کیوں نمایاں تمہیں زرد رنگ میں ہو”
روح کو تازگی ، زندگی کو خوش عزم و ہمت سے ملتی رہی

قول اور فعل کا فرق ثانیؔ ذرا دیکھئے
اتحاد و محبت کا نغمہ لبوں پر رہا ، آگ نفرت کی دل میں دہکتی رہی
This aazad ghazal was published in “Memark”, in November 1973


मेरे वतन के जवानों!

मेरे वतन के जवानों! मेरे चमन के ग़ुलों!!
बहारे नौ के तराने तुम्ही से वाबस्ता
ग़ुले चमन ने तुम्ही से ताज़गी पायी
तुम्ही से अर्जे वतन की जबीं दरख्शँदा
तुम्हीं से हिंद ने फरखंदा रोशनी पायी

मेरी रिवायते कोहना के पासबां हो तुम
तुम्हारी शाने जलाली वतन का झूमर है
तुम्हारे दिल में तमन्ना है सरफरोशी की
तुम्हारे खून की सुर्खी चमन का ज़ेवर है

तुम्हारा अज़्मे शुजाअत है आहनी परदा
कोई हरीफ न सरहद पे आ सके अपनी
जो एक बार निग़ाहों को शोलाबार करो
कोई न जुल्म की नज़रें उठा सके अपनी

तुम्हारे हौसले टकरा गये चट्टानों से
तुम्हारी खंदालबी इक अज़्मे मोहक्कम है
तुम्हारी शोलाफिशां तीग़ जिस्म फौलादी
मुहाज़ जंग पे कहर और बर्क पैहम है
मेरे वतन के जवानों ! मेरे चमन के ग़ुलों!!
!!میرے وطن کے جوانو! میرے چمن کے گلوں
بہارِ نو کر ترانے تمھیں سے وابستہ
گل چمن نے تمھیں سے ہے تازگی پائی
تمھیں سے ارض وطن کی جبیں درخشندہ
تمھیں سے ہند نے فرخندہ روشنی پائی

میری روایتِ کہنہ کے پاسباں ہو تم
تمھاری شانِ جلالی وطن کا جھومر ہے
تمہارے دل میں تمنا ہے سرفروشی کی
تمھارے خون کی سرخی چمن کا زیور ہے

تمھارا عزم شجاعت ہے آہنی پردہ
کوئی حریف نہ سرحد پہ آسکے اپنی
جو ایک بار نگاہوں کو شعلہ بار کرو
کوئی نہ ظلم کی نظریں اٹھا سکے اپنی

تمھارے حوصلے ٹکرا گئے چٹانوں سے
تمھاری خندہ لبی ایک عزم محکم ہے
تمھاری شعلہ فشاں تیغ جسم فولادی
محاذ جنگ پہ پہر اور برق پیہم ہے
!!میرے وطن کے جوانو! میرے چمن کے گلو
This nazm was published in “Aajkal”, Delhi in February 1966 (written on 24th April 1965)