इल्तमास उर्दू व हुज़ूरे हिंद

ए अर्ज़े पाक हिंद ! तेरी जाँ-निसार हूँ
पैदा हुयी यहीं
यहीं पलकर जवां हुयी
नस नस में मेरी गंगो-जमन की रवानियाँ
रफत हिमािलया की लताफत चेनाब की
कशमीर की फिज़ाँओं की खुशबू ए अंबरी
शामे अवध का हुस्न
बनारस की ताज़गी
आईना देखकर मुझे महसूस ये हुआ
पैकर मेरा लतीफो जमीलो नफीस है
मैं फक्रे हिंद हूँ
मेरी राहें अज़ीम हैं
यक जहती इत्हाद की ज़िंदा मिसाल हूँ !
मैं बेखबर थी, घात में सैयाद है कहीं
नफरत का दाम हाथ में
खंजर लहूफशां
ए अर्ज़े हिंद !
ये तेरे ग़ारतगरों में था
खुशरंग जामे ज़हर लबों से लगा दिया
मैं पी गयी
मगर न मरी – अब भी सांस है
जिन्दा रहूंगी
चश्मे हैवां का फैज़ है
ए अर्ज़े हिंद !
नानको चिश्ती की सरज़मीं
“सौदा” और “मीर” व “ग़ालिब” व “इक्बाल” के वतन
“चक्बस्त” के “सुरूर” के “महरूम” के चमन
जमूरियत का ताज अहिंसा का बांकपन
मेरा वजूद तुझसे ग़िलामंद हो गया
कैसा सितम है
दर पये आज़ार हैं वही
ज़ुल्फे संवारते थे शबोरोज़ जो मेरी
हस्ती तमाम कर्ब की लहरों पे मुस्तरिब
मुझको गले लगा ले मैं तेरी बहार हूँ
ए अर्ज़े पाके हिंद तेरी जाँनिसार हूँ
اے ارضِ پاک ہند! تیری جانثار ہوں
پیدا ہوئی یہیں
یہیں پل کر جواں ہوئی
نس نس میں میری گنگ و جمن کی روانیاں
رفعت ہمالیہ کی لطافت چناب کی
کشمیر کی فضاؤں کی خوشبوئے عنبریں
شام اودھ کا حسن
بنارس کی تازگی
آئینہ دیکھ کر مجھے محسوس یہ ہوا
پیکر میرا لطیف و جمیل و نفیس ہے
میں فخر ہند ہوں
میری راہیں عظیم ہیں
یک جہتی اتحاد کی زندہ مثال ہوں!
میں بے خبر تھی گھات میں صیاد ہے کہیں
نفرت کا دام ہاتھ میں
خنجر لہو فشاں
اے ارض ہند! یہ تیرے غارت گروں میں تھا
خوش رنگ جامِ زہر لبوں سے لگا دیا
میں پی گئی
مگر نہ مری ۔ اب بھی سانس ہے
زندہ رہوں گی
چشمہئ حیواں کا فیض ہے
اے ارض ہند!
نانک و چشتی کی سرزمیں
سوداؔ اور میرؔ و غالبؔ و اقبالؔ کے وطن
چکبستؔ کے سرورؔ کے محرومؔ کے چمن
جمہوریت کا تاج اہنسا کا بانکپن
میرا وجود تجھ سے گلہ مند ہوگیا
کیسا ستم ہے
در پئے آزار ہیں وہی
زلفیں سنوارتے تھے شب و روز جو میری
ہستی تمام کرب کی لہروں پہ مضطرب
مجھ کو گلے لگا لے میں تیری بہار ہوں
اے ارض پاک ہند تیری جانثار ہوں
This poem dedicated to our beloved country was published in the annual magazine “Mehfil”

सरहद पर जाते हुये महबूब से

मेरे महबूब मेरी जाने तमन्ना रुखसत
मेरे अरमान! मेरी प्यार की दुनिया रुखसत
मैं हूं नाशाद मगर मेरा वतन शाद रहे
मादरे हिंद करे तेरा तकाज़ा रुखसत

मुस्कुराहट मेरी बेजान हुयी जाती है
दिल की दुनिया भी तो सुनसान हुयी जाती है
अपने अश्कों के चिराग़ों से चिराग़ाँ कर लूं
बज़्मे आरास्ता वीरान हुई जाती है

ताज़गी चेहरे पे छायी ग़मे वहशत के लिये
मुझको ये वस्ल मिला था तेरी फुर्कत के लिये
चशमे पुरनम दिले बेताब ग़िरफ्तारे अलम
बारेग़म क्या न उठायें हैं मोहब्बत के लिये

अब सदा शिकवा ए तक़दीर किये जाती हूँ
अपनी मजबूरी व तन्हाई पे थर्राती हूँ
किस तरह ये ग़मे फुर्कत मैं उठाऊं हमदम
तेरी फुर्कत के तसव्वुर से लरज़ जाती हूँ

राहते रूह व जिगर जान ए मोहब्बत रुखसत
मेरी बरबादशुदा दिल की मसर्रत रुखसत
गुलशने “सानी” का शिराज़ा बिखर जायेगा
फिर भी ए जान-ए-जहाँ बज़्म की जीनत रुखसत

میرے محبوب مری جانِ تمنا رخصت
میرے ارمان! میری پیار کی دنیا رخصت
میں ہوں ناشاد مگر میرا وطن شاد رہے
مادرِ ہند کرے تیرا تقاضہ رخصت

مسکراہٹ میری بے جان ہوئی جاتی ہے
دل کی دنیا بھی تو سنسان ہوئی جاتی ہے
اپنے اشکوں کے چراغوں سے چراغاں کرلوں
بزم آراستہ ویران ہوئی جاتی ہے

تازگی چہرے پہ چھائی غم وحشت کے لئے
مجھ کو یہ وصل ملا تھا تری فرقت کے لئے
چشم پُرنم دل بے تاب گرفتارِ الم
بارِ غم کیا نہ اٹھائے ہیں محبت کے لئے

اب سدا شکوہئ تقدیر کئے جاتی ہوں
اپنی مجبوری و تنہائی پہ تھراتی ہوں
کس طرح یہ غم فرقت میں اٹھاؤں ہمدم
تری فرقت کے تصور سے لرز جاتی ہوں

راحتِ روح و جگر جان محبت رخصت
میرے برباد شدہ دل کی مسرت رخصت
گلشن ثانیؔ کا شیرازہ بکھر جائے گا
پھر بھی اے جانِ جہاں بزم کی زینت رخصت
This nazm was published in December 1963 (publication unknown)

मेरे वतन के जवानों!

मेरे वतन के जवानों! मेरे चमन के ग़ुलों!!
बहारे नौ के तराने तुम्ही से वाबस्ता
ग़ुले चमन ने तुम्ही से ताज़गी पायी
तुम्ही से अर्जे वतन की जबीं दरख्शँदा
तुम्हीं से हिंद ने फरखंदा रोशनी पायी

मेरी रिवायते कोहना के पासबां हो तुम
तुम्हारी शाने जलाली वतन का झूमर है
तुम्हारे दिल में तमन्ना है सरफरोशी की
तुम्हारे खून की सुर्खी चमन का ज़ेवर है

तुम्हारा अज़्मे शुजाअत है आहनी परदा
कोई हरीफ न सरहद पे आ सके अपनी
जो एक बार निग़ाहों को शोलाबार करो
कोई न जुल्म की नज़रें उठा सके अपनी

तुम्हारे हौसले टकरा गये चट्टानों से
तुम्हारी खंदालबी इक अज़्मे मोहक्कम है
तुम्हारी शोलाफिशां तीग़ जिस्म फौलादी
मुहाज़ जंग पे कहर और बर्क पैहम है
मेरे वतन के जवानों ! मेरे चमन के ग़ुलों!!
!!میرے وطن کے جوانو! میرے چمن کے گلوں
بہارِ نو کر ترانے تمھیں سے وابستہ
گل چمن نے تمھیں سے ہے تازگی پائی
تمھیں سے ارض وطن کی جبیں درخشندہ
تمھیں سے ہند نے فرخندہ روشنی پائی

میری روایتِ کہنہ کے پاسباں ہو تم
تمھاری شانِ جلالی وطن کا جھومر ہے
تمہارے دل میں تمنا ہے سرفروشی کی
تمھارے خون کی سرخی چمن کا زیور ہے

تمھارا عزم شجاعت ہے آہنی پردہ
کوئی حریف نہ سرحد پہ آسکے اپنی
جو ایک بار نگاہوں کو شعلہ بار کرو
کوئی نہ ظلم کی نظریں اٹھا سکے اپنی

تمھارے حوصلے ٹکرا گئے چٹانوں سے
تمھاری خندہ لبی ایک عزم محکم ہے
تمھاری شعلہ فشاں تیغ جسم فولادی
محاذ جنگ پہ پہر اور برق پیہم ہے
!!میرے وطن کے جوانو! میرے چمن کے گلو
This nazm was published in “Aajkal”, Delhi in February 1966 (written on 24th April 1965)