खोई हुयी जन्नत

लाखों सज्दे किये एक विर्द की तस्कीं के लिये
हसरत व यास से एक एक नज़र को देखा
सिर्फ एक लफ्ज़ मोहब्बत है मौसूम अपना
शाम देखी न कभी और सहर को देखा

खुदफरेबी से यह समझा के तुम्हें भूल गयी
नक्श पत्थर पे बना हो तो मिटायें क्यूंकर
संगे दिल प्यार की गर्मी से पिघल जाता है
यह इनायत कि नज़र दिल को हुयी आज खबर

आपके दिल में मोहब्बत है यही क्या कम है
हिज्र के दर्द को हमराज़ बना लूंगी मैं
अब ज़माना मेरे ज़ख्मों पे न मरहम रख्खे
दिल की सोज़िश को ही दमसाज़ बना लूंगी मैं

आपका प्यार है कंदील मेरे राहों की
आपका तर्ज़े तख़ातुब है मोहब्बत परवर
आखरिश मिल गयी खोई हुयी जन्नत मुझको
ज़ुल्मते ग़म से निकल आयी है ताबिंदा सहर
لاکھوں سجدے کئے اک درد کی تسکیں کے لئے
حسرت و یاس سے ایک ایک نظر کو دیکھا
صرف اک لفظ محبت ہے موقف اپنا
شام دیکھی نہ کبھی اور نہ سحر کو دیکھا

خود فریبی سے یہ سمجھا کہ تمھیں بھول گئی
نقش پتھر پہ بنا ہو ، تو مٹائیں ، کیوں کر؟
سنگ دل ، پیار کی گرمی سے پگھل جاتا ہے
یہ عنایت کی نظر ، دل کو ہوئی آج خبر!

آپ کے دل میں محبت ہے ، یہی کیا کم ہے
ہجر کے درد کو ، ہم راز بنا لوں گی میں
اب زمانہ مرے زخموں پہ نہ مرہم رکھے
دل کی سوزش ہی کو دم ساز بنالوں گی میں

آپ کا پیار ہے ،قندیل مری راہوں کی
آپ کا طرز تخاطب ہے محبت
آخرش مل گئی کھوئی ہوئی جنت مجھ کو
ظلمت غم سے نکل آئی ہے تابندہ سحر
This Aazad Nazm was published in Mahanama Zewar, Patna in February 1974

सज्दे – माथा टेका
विर्द -बात को दोहराना
तस्कीं -सांत्वना
हसरत व यास – निराशा
मौफूक – नाम (namesake)
खुदफरेबी – खुद को झठा बहलाना (self deception)
संगे दिल -पत्थर दिल
इनायत – र्कपा (kindness)
हिज्र – जुदाई
हमराज़ – दोस्त
सोज़िश – जलन (burning)
दमसाज़ – दोस्त
तर्ज़े तखातुब – आपकी संबोधित करने की शैली (तर्ज़ -ढ़ंग, तखातुब – संबोधन)
आखिरश – अंत में (finally)
परवर – सबसे ऊँचा (great, above all)
ज़ुल्मते ग़म – ग़म का अंधेरा
ताबिंदा – रोशन

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– Swati Sani

तू अपने जैसा अछूता खयाल दे मुझको

मैं टूट जाउँगी लेकिन न झुक सकूंगी कभी
मजाल है किसी पैकर में ढ़ाल दे मुझको

तू अपने जैसा अछूता खयाल दे मुझको
मैं तेरा अक्स हूँ अपना जमाल दे मुझको

मैं अपने दिल से मिटा दूंगी तेरी याद मगर
तू अपने ज़ेहन से पहले निकाल दे मुझको !

मैं संगे कोह की मांनिंद हूँ न बिखरूंगी
न हो यकीं जो तुझे, तो उछाल दे मुझको

खुशी खुशी बढ़ूं, खो जाऊं तेरी हस्ती में
‘अना’ के ख़ौफ से “सानी” निकाल दे मुझको
تو اپنے جیسا اچھوتا خیال دے مجھ کو
میں تیرا عکس ہوں اپنا جمال دے مجھ کو

میں ٹوٹ جاگي لیکن نہ جھک سکوں گی کبھی
مجال ہے کسی پےكر میں ڑھال دے مجھ کو

میں اپنے دل سے مٹا دوںگی تیری یاد مگر
تو اپنے ذہن سے پہلے نکال دے مجھ کو!

میں سگے کوہ کی ماند ہوں نہ بكھروگي
نہ ہو یقین جو تجھے، تو اچھال دے مجھ کو

خوشی خوشی بڑھو، کھو جاؤں تیری هستي میں
انا’ کے خوپھ سے “ثانی” نکال دے مجھ کو’
This Ghazal was published in “Kaumiraj” (date not known)

अक्स – प्रतिबिंब /reflection
जमाल – सौंर्दय /beauty
पैकर – िजस्म / body (here it means mould)
संगे कौह – पहाड़ का पत्थर / stone (here it means strong as a stone)
अना – अहंभाव /ego

हस्ती

मेरी हस्ती की हकीकत क्या है
एक शोला है हवा की ज़द पर
जो भड़कता भी है
जो सर्द भी हो जाता है
या सफीना है कोई
वक्त की लहरों पे रवाँ
अाज तक हस्ती ए मौहूम का इर्फां न हुअा
खुदशनासी व खुदअागाही क्या
नफ्स ए नाकारा तकाज़े तेरे
खुदफरेबी के सिवा कुछ भी नही
कौन समझायेगा हस्ती की हक़ीक़त मुझको
है कोई?
कोई भी है?
میری ہستی کی حقیقت کیا ہے
ایک شعلہ ہے ہوا کی زد پر
جو بھڑکتا بھی ہے
جو سرد بھی ہو جاتا ہے
یا سفینہ ہے کوئی
وقت کی لہروں پہ رواں
آج تک ہستیئ موہوم کا عرفاں نہ ہوا
خود شناسی و خود آگاہی کیا
نفس ناکارہ تقاضے تیرے
خود فریبی کے سوا کچھ بھی نہیں
کون سمجھائے گا ہستی کی حقیقت مجھ کو
ہے کوئی؟
کوئی بھی ہے؟
This free verse written by Dr. Zarina Sani was published in a magazine called “Tehreek” in February 1973.

हस्ती- अस्तित्व, existance
सफीना – कश्ती, boat
मौहूम – काल्पनिक, imaginary
इर्फां – विवेक, wisdom
खुदशनासी-  अपने अाप की पहचान, self recognition
खुदअागाही – अात्मज्ञान, knowledge of soul
नफ्स ए नाकारा- वर्य्थ/मिथ्या जीवन, useless existence
तकाज़े – माँग, demand
खुदफरेबी अातमवंचना, self deception

शक्ल धुधंली सी

शक्ल धुधंली सी है शीशे में निखर जायेगी,
मेरे अहसास की गर्मी से संवर जायेगी

आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन,
चाँद सी रौशनी बालों पे उतर जायेगी

जिन्दगी मर्हला-ए-दार-ओ-रसन हो जैसे
दिल की बेचारगी ता-वक्त सहर जायेगी

ज़ौक तरतीब से थी कोख़ सदफ़ की महरूम
कैसा अंधेरा है ये बात मगर अब्र के सर जायेगी

मोहनी ड़ाल रही है गुलतर की सूरत
ज़द पे आयेगी हवा के वो, बिखर जायेगी

वक्त रफ्तार का बहता हुआ दरिया “सानी”
जिन्दगी आपके साये में नहीं, न सही फिर भी गुज़र जायेगी
           شکل دھندلی سی ہے شیشنے میں نکھر جائے گی
          میرے احساس کی گرمی سے سنور جائے گی

          آج وہ کالی گھٹائوں پہ ہیں نازاں لیکن
          چاند سی روشنی بالوں پہ اتر جائے گی

          زندگی مرحلۂ دار و رسن ہو جیسے
          دل کی بے چارگی تا وقت سحر جائے گی

          ذوق ترتیب سے تھی کوکھ صدف کی محروم
          کیسا اندھیر ہے یہ بات مگر ابر کے سر جائے گی

          موہنی ڈال رہی ہے گل تر کی صورت
          زد پہ آئے گی ہوا کے وہ ، بکھر جائے گی

          وقت رفتار کا بہتا ہوا دریا ثانیؔ
          زندگی آپ کے سائے میں نہیں ، نہ سہی پھر بھی گذر جائے گی
This aazad ghazal was published in the magazine “Kohsaar” in March 1980

* अाज़ाद ग़ज़ल : जब ग़ज़ल के शेरों से मीटर की पाबंदी हटा दी जाती है मगर रदीफ और क़ाफिये की पाबंदी बरकार रखी जाती है.  ड़ा. ज़रीना सानी अाज़ाद ग़ज़ल की समर्थक थीं, अौर उन्होंने कई ऐसी ग़ज़लें लिखीं.

रदीफ: अशअार का वो शब्द जो दोनों मिसरों मे अाता है (शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं)  (जायेगी, अायेगी)

क़ाफीया: वह शब्द जो शेर की हर पंक्ती में रदीफ के पहले अाता है (निखर, संवर, उतर)

मर्हला — destination
दार-ओ-रसन -gallows and prison
सदफ़ – sea shell
महरूम -deprived (here barren -the sea shell is without a pearl)
अब्र- clouds (rain clouds)