ऐ संग-ए-राह

ऐ संग-ए-राह ! आबलापई न दे मुझे
एसा न हो कि कोई राह सुझाई न दे मुझे

सतहे शऊर पर है मेरे शोर इस कदर
अब नग्मा-ए-ज़मीर सुनाई न दे मुझे

इन्सानियत का जाम जहां पाश पाश हो
अल्लाह मेरे एसी खुदाई न दे मुझे

रंगीनियाँ शबाब की इतनी हैं दिल फरेब
बालों पे आती धूप दिखाई न दे मुझे

तर्क-ए-तआलुक्कात पे इसरार था तुझे
अब तो मेरी वफा की दुहाई न दे मुझे

बे-बालों पर हूँ, रास न आयेगी ये फिज़ा
“सानी” कफस से अपनी रिहाई न दे मुझे
اے سنگِ راہ! آبلہ پائی نہ دے مجھے
ایسا نہ ہو کہ راہ سجھائی نہ دے مجھے

سطح شعور پر ہے مرے شور اس قدر
اب نغمہئ ضمیر سنائی نہ دے مجھے

انسانیت کا جام جہاں پاش پاش ہو
اللّٰہ میرے ایسی خدائی نہ دے مجھے

رنگینیاں شباب کی اتنی ہیں دلفریب
بالوں پہ آتی دھوپ دکھائی نہ دے مجھے

ترکِ تعلقات پہ اصرار تھا تجھے
اب تو مری وفا کی دہائی نہ دے مجھے

بے بال و پر ہوں ، راس نہ آئے گی یہ فضا
ثانیؔ نفس سے اپنے رہائی نہ دے مجھے
This ghazal was published in “Pasbaan”, Chandiarh on 26th February, 1979.

शीरीं नग्मा

रूह कुचली थी मेरी ग़म की गिराँबारी से
अशक आखों में छलकते हुये पैमाने से
कर्ब का ज़हर रगो-पै में बसा जाता था
वहम के नाग सरापा को डसे जाते थे
बिस्तरे नर्म पे भी नींद नहीं आती थी
दर्द-अँग़ेज़ थे लम्हे लेकिन
मेरे तखय्युल के तारों को किसी ने छेड़ा
एक शीरीं सी सदा
मुझको मसहूर किये जाती थी
“लौ लगा ले हमसे
अपनी दुनिया-ए-तसव्वुर में बसा ले हमको
ताकि दिल पर जो सनम तूने तराशे
फानी!
ये तुझे सोज़िशे पिन्हाँ के सिवा क्या देंगे
तेरे एवाने मोहब्बत को जिला क्या देंगे?”
ख्वाब से चौंक पड़ी
और ये अहसास हुआ
ये ख़लाई ये फिज़ाई उल्फत
किस तरह जान को तस्कीं होगी
मैं तो नज़्ज़ारों की आदी
मुझे कुर्बत की ज़रूरत होगी
वही नग्मा, वही शीरीं नग्मा
इक साहिर की तरह बनके मुजस्सिम उभरा
“हम तो हर वक्त तेरे पास रहा करते हैं
तेरी शहरग़ से करीं
चशमे बीना की ज़रूरत होगी”
था अजब नूर का आलम, रंगे तक़दीस लिये
इत्र बेज़ी थी फिज़ाओं मे बसे
कैफ-अँगेज़ हवाऐं
रगो-रेशे में उतर जाने को
जैसे बेताब हुयी जाती थीं
अब भी याद है मुझे
वही नग्मा वही शीरीं नग्मा
    روح کچلی تھی مری غم کی گرانباری سے
    اشک آنکھوں میں چھلکتے ہوئے پیمانے سے
     کرب کا زہر رگ و پے میں بسا جاتا تھا
    وہم کے ناگ سراپا کو ڈسے جاتے تھے
    بستر نرم پہ بھی نیند نہیں آتی تھی
    درد انگیز تھے لمحے لیکن
    میرے تخئیل کے تاروں کو کسی نے چھیڑا
    ایک شیریں سی صدا
    مجھ کو مسحور کئے جاتی تھی
    ” لَو لگالے ہم سے
    اپنی دنیائے تصور میں بسا لے ہم کو
    طاقِ دل پر جو صنم تو نے تراشے
    فانی!
    یہ تجھے سوزشِ پنہاں کے سوا کیا دیں گے
    تیرے ایوانِ محبت کو جلا کیا دیں گے”؟
    خواب سے چونک پڑی
    اور یہ احساس ہوا
    یہ خلائی یہ فضائی الفت
    کس طرح جان کو تسکیں ہوگی
    میں تو نظاروں کی عادی
    مجھے قربت کی ضرورت ہوگی!
    وہی نغمہ وہی شیریں نغمہ
    ایک ساحر کی طرح بن کے مجسم ابھرا
    ” ہم تو ہر وقت ترے پاس رہا کرتے ہیں
    تیری شہ رگ سے قریب
    چشم بینا کی ضرورت ہوگی”
    تھا عجب نور کا عالم ، رنگِ تقدیس لئے
    عطر بیزی تھی فضاؤں میں بسے
    کیف انگیز ہوائیں
    رگ و ریشے میں اتر جانے کو
    جیسے بیتاب ہوئی جاتی تھیں
    اب بھی ہے یاد مجھے
    وہی نغمہ وہی شیریں نغمہ
This nazm was published in “Mahanama” Lahore in January 1976.

दिलनवाज़ी का वादा

दिलनवाज़ी का वादा वो करते रहे
शाख से टूट कर हम बिखरते रहे

नौ-ब-नौ राह पर ग़ाम ज़न जब भी कोई हुअा
तंज़ के तीरो-नश्तर रग़ों में उतरते रहे

सिलसिला खैरो-शर का अज़ल से अबद तक है फैला हुआ
इस तसादुम से जौहर निखरते रहेंगे, निखरते रहे

राह के पेचो ख़म में, बुलंदी व पस्ती में इक क़ैफ है
बेसबब हम तो डरते रहे

संगे खारा ही लाये तो कुछ ग़म नहीं काबिले फक्र अादम की तसखीर है
इसलिये मुद्दतों चाँद की सरज़मीं के लिये “सानी” मरते रहे

नौ-ब-नौ- quiet new
ग़ाम – चढ़ना
तंज़ – taunt, ताने
तीरो-नश्तर – arrows and thorns
खैरो-शर – अच्छा-बुरा
अज़ल से अबद तक – from time immemorial to eternity
तसादुम -collision
जौहर – skills (that shine like gems)
पेचो ख़म -complex and twisted
बुलंदी व पस्ती – उपर – नीचे
क़ैफ – exhilaration, सुरूर
संगे खारा – hard and rough stone
तसखीर – जीतना / to overpower

 

This aazad ghazal was published in the magazine “Kohasar” in August 1979