चश्म खैरा को एसी चमक चाहिये

चश्म खैरा को एसी चमक चाहिये
अज़्म तकमील पायेगा तूफान की सी लपक चाहिये
सीधे सादे उसूलों पे जीने न दें
ये सियासत ही दुनिया है ! इसे लचक चाहिये
एसे मलबूसे सादा की बज़्मे तरब में इजाज़त नहीं
ठहरिये ठहरिये ! कुछ भड़क कुछ चमक चाहिये
खूबसूरत है ग़ुलमोहर, खुशबू से महरूम है
आज के दौर में कागज़ी फूल में भी महक चाहिये
महफिले रक्स रंगी नही है मसाफे जहाँ
चूड़ियों की खनक आप रखिये इधर तैगो-खंजर की “सानी” झनक चाहिये

This aazad ghazal was published in “Kohsar” Hazaribag in January 1979

ग़म में गुज़री खुशी में गुज़र जायेगी

ग़म में गुज़रे खुशी में गुज़र जायेगी
ज़िन्दगी फूल की पंखडी है, बिखर जायेगी

दिल के औराक पर शबनमी याद के इतने छींटे पड़े
धूप ग़म की चढ़ी है, उतर जायेगी

कामरा ज़िन्दगी के है ज़ामिन, अमल और जहद मुसलसिल, खुदी का तहफ्फुज़, शउर जहाँ
ये ग़लत है लि उनकी निगाहे करम संवर जायेगी

ख्वाब के धुंधले साये तले कब तलक ज़िन्दगानी गुज़ारोगे तुम
अब कि अहवोफग़ां बे-असर जायेगी

तर्ज़ुरबाती ग़ज़ल साज़े दिल के सुरों पर ज़रा छेडिये
उसकी आवाज़ से एक खुशबू उड़ेगी जिधर जायेगी

आगही नफ्स की, लाशउर और तहतश-शउर  और शउर
वक्त के हैं तकाज़े, जो समझो उसे जिन्दगानी ए “सानी” संवर जायेगी

This aazad ghazal was published in “Mahanama Ilmo Danish” in April 1973

नित नयी ज़िन्दगी के तकाज़े

नित नयी ज़िन्दगी के तकाज़े हमें भी तो मंज़ूर है, आपको भी मग़र सोचना चाहिये
जज़्बा ए दिल से इन्कार मुमकिन नहीं, बंदगी के लिये नक्शे पा चाहिये

हुस्ने बालीदगी जिनके इकदार में, नक्शे आलम पे वो सिब्त होते हुये दायमी बन गये
लग़ज़िशे पा से घबराइये न ज़रा, तजुर्बों के लिये हौसला चाहिये

दिल के ज़ख्मों का अंदाज़ा कैसे करें अपने ही खोल में बंद रहतें हैं वो
चारासाज़ी व बखियाग़िरी के लिये ज़िन्दगी का वसी तजुर्बा चाहिये

आपकी बात ज़ूलिदा, मफून पेचीदा, तर्ज़े तखातिब मुनासिब नहीं
देखिये ! आपको आईना चाहिये

मुनजमिद बर्फ की सील है इसको पिघलाईये ताकि तखलीक हो एक तूफान की
रहनुमा न सही ! तेज़ रफ्तार हूँ, बर्क पा चाहिये

रंग है,  नूर है, हुस्न है, कैफ है, रौनके अंजुम से गरेज़ा हो क्यूँ
तुम परेशां हो “सानी” बताओ  तुम्हें और क्या चाहिये

This aazad ghazal was published in “Memark” in April 1973.

 

ज़िन्दगी का शबिस्तां मुनव्वर हुआ

ज़िन्दगी का शबिस्तां मुनव्वर हुआ, आपकी चश्मो  अब्रू के बल ही गये
बुझ रहे थे दिये आज जल ही गये
शुक्रिया आपका, ज़िन्दगी ग़म में भी मुस्कुराने लगी
हम बहलते बहलते बहल ही गये
खौफ खाते थे हम पहले हर हर कदम, लग़ज़िशें साथ थीं
राह के पेचो खम से ग़ुज़रते गुज़रते संभल ही गये
तेरे रिन्दे बिलानौश की खैर हो
ज़ुल्फ लहराई है, चाँदनी छाई है, सागरे चश्म महफिल में चल ही गये
ज़ुल्मते शाम-ए-ग़म की सिमटने लगीं ज़िन्दगी का नसीबा चमक जायेगा
“सानी” ज़ुल्फें परेशां के बल ही गये

This aazad ghazal was published in “Shakshar” in January 1973

मेरा ज़ौक-ओ-शौक हयात है

मेरा ज़ौक-ओ-शौक हयात है उसे खाक में न मिलाइये
मेरी रूह का ये सुकून है न मिटाइये

गुलो लाला का है नक़ाब क्यूँ मेरे और आपके दरमियाँ?
मुझे नाज़ ज़ौके निगाह पर चले आईये

अपना भी तो वजूद है उसे मान लें
फकत अपनी ज़ात के वास्ते मुझे मुस्तकिल न रुलाइये !

है जहां की सारी मसर्रतें मेरा दिल है फिर भी बुझा हुआ
मेरी रूह कैदे अलम में है उसे पहले आप छुड़ाईये

This aazad ghazal was published in “Roshni” Meeruth in February 1976