रूह की सारी कसाफत घुल गयी

रूह की सारी कसाफत धुल गयी रौशन दरीचे खुल गये
पत्थरों में एसे नज्ज़ारे मिले

ज़िन्दगी की बर्क रफ्तारी से फुरसत है किसे ?
कौन अब उनसे कहे ये लनतरानी छोडिये

जिसका पानी जौहरी कूवत ने गंदा कर दिया
तिश्नगी ऐसे समंदर से मेरी क्यूंकर बुझे !

चेहरा ए मानूस से उभरेंगे कितने अजनबी चेहरे शउरे वक्त की अम्वाज में
अपनी तनहाई के दरिया में तू पत्थर फेंक दे

रफ्ता रफ्ता महफिले शेरो सुखन की रोशनी बढ़ती रही
खूने दिल जलता रहा फन के लिये

बेवफाई, कजअदाई हो मुबारक हम चले परवाह नही
गुफ्तगू के ज़हर में कुछ और तल्खी घोलिये !

ख्वाब सी धुंधली फिज़ा, माहौल अफसुर्दा, सुखन की साँस है उखडी हुयी
रंगे महफिल देख कर “सानी” कहे तो क्या कहे ?
 روح کی ساری کثافت دھل گئی روشن دریچے کھل گئے
پتھروں میں ایسے نظارے ملے

زندگی کی برق رفتاری سے فرصت ہے کسے؟
کون اب ان سے کہے یہ لن ترانی چھوڑیے

جس کا پانی جوہری قوت نے گندہ کردیا
تشنگی ایسے سمندر سے مری کیونکر بجھے!

چہرہ مانوس سے ابھریں گے کتنے اجنبی چہرے شورِ وقت کی امواج میں
اپنی تنہائی کے دریا میں تو پتھر پھینک دے

رفتہ رفتہ محفل شعر وسخن کی روشنی بڑھتی رہی
خونِ دل جلتا رہا فن کے لئے

بے وفائی ، کج ادائی ہو مبارک ہم چلے پروا نہیں
گفتگو کے زہر میں کچھ اور تلخی گھولئے!

خواب سی دھندلی فضا ، ماحول افسردہ ، سخن کی سانس ہے اکھڑی ہوئی
رنگِ محفل دیکھ کر ثانیؔ کہے تو کیا کہے؟
This aazad ghazal was published in “Kitab”, Lucknow

ज़िन्दगी कर्ब है सोज़ है रक्स है साज़ है

जिन्दगी कर्ब है सोज़ है रक्स है साज़ है
आपकी चश्मे रौशन सा अंदाज़ है

मेरे अहसास छूने लगे हैं तसव्वुर के मिज़राब को आपके
क्यूं परेशान हैं? आपका राज़ भी तो मेरा राज़ है

जिसके फिक़दान का लोग मातम करें
आज भी मुझको इन्सानियत के इस प्यार पर नाज़ है

बेगानी के तारीक साये की लरज़िश नहीं चाहिये
नासाह! इन के लुत्फ व मोहब्बत का आग़ाज़ है

हम बुलायें सरे बज्म एसी रिवायत नहीं !
जी हमारी नहीं आप ही की ये आवाज़ है

ये जहाने फना क्यूं नज़र आ रहा दिलकश व दिलरूबा
“सानी” अब से सनम के तसव्वुर का एजाज़ है
زندگی کرب ہے سوز ہے رقص ہے ساز ہے
آپ کی چشم روشن سا انداز ہے

میرے احساس چھونے لگے ہیں تصور کے مضراب کو آپ کے
کیوں پریشان ہیں؟ آپ کا راز بھی تو میرا راز ہے

جس کے فقدان کا لوگ ماتم کریں
آج بھی مجھ کو انسانیت کے اسی پیار پر ناز ہے

بد گمانی کے تاریک سائے کی لرزش نہیں چاہیے
ناصحا! ان کے لطف و محبت کا آغاز ہے

ہم بلائیں سربزم ایسی روایت نہیں!
جی ہماری نہیں آپ ہی کی یہ آواز ہے

یہ جہانِ فنا کیوں نظر آرہا دلکش و دلربا
ثانی عکس صنم کے تصور کا اعجاز ہے
This azad ghazal was published in “Adraak” in February 1975

रौशनी के वरक

लुटाये गये रौशनी के वरक चारसू
कभी निख़त की है नज़र, आ रहे तैरग़ी के वरक चारसू

आजकल ज़िन्दगी का उफक ज़र्द है
खिज़ाँ की हंसी के वरक चारसू

अजनबी रास्ते, अजनबी मंजिले राहबर का भरोसा नहीं
खो न जायें कहीं ज़िन्दगी के वरक चारसू

फर्द की ज़ात से मेहर इन्सानियत का चमकता रहा
बिखरते रहे इल्म की चाँदनी के वरक चारसू

इक जुनूं खेज़ जज़्बे की तशहीर थी
यूँ तो फैले रहें आगही के वरक चारसू

फलसफा ज़ात का और अना का न मखसूस कर “सानी” इस दौर से
मीरो ग़ालिब से लेकर यहाँ तक खुदी के वरक चारसू
 لٹائے گئے روشنی کے ورق چار سو
کبھی بخت کی ہے نظر آرہے تیرگی کے ورق چار سو

آج کل زندگی کا افق زرد ہے
خزاں کی ہنسی کے ورق چار سو

اجنبی راستے اجنبی منزلیں راہ بر کا بھروسہ نہیں
کھو نہ جائیں کہیں زندگی کے ورق چار سو

فرد کی ذات سے مہر انسانیت کا چمکتا رہا
بکھرتے رہے علم کی چاندنی کے ورق چار سو

اِک جنوں خیز جذبے کی تشہیر تھی
یوں تو پھیلے رہے آگہی کے ورق چار سو

فلسفہ ذات کا اور انا کا نہ مخصوص کر ثانیؔ اس
دور سے
میرؔ و غالبؔ سے لے کر یہاں تک خودی کے ورق چار سو
This azad ghazal was published in the magazine “Shiraza”

ज़िन्दगी की हसीन और शादाब वादी

ज़िन्दगी की हसीन और शादाब वादी में रहकर भी जलती रही
एक लायनी तक़दीज़ के वास्ते खून अपनी तमन्ना का पीती रही

चांद का अक्स लहरों पर गिरकर बिखरता रहा
उनकी नज़रों के गहरे समंदर में, मेरी मोहब्बत यूं ही टूटती और बिखरती रही

सदक औ अखलास का कुछ पता ही न था, मुनकशिफ ये हुआ
सिर्फ झूठे वक़ार व नुमाइश की खातिर गुनाहों से बचती रही

हर तरफ रंगो-निखत का सैलाब था, दावते कैफ थी
ज़ात के खोल में बंद, मैं अपनी तन्हाइयों में सिसकती रही

“हर तरफ सब्ज़े रंगत का तूफान है क्यूं नुमाया तुम्ही ज़र्द रंगत में हो”
रूह को ताज़गी, जिन्दगी को खुशी अज़्मो हिम्म्त से मिलती रही

कौल और फेल का फर्क “सानी” ज़रा देखिये
इत्हादो मोहब्बत का नग़्मा लबों पर रहा, आग नफरत की दिल में दहकती रही
زندگی کی حسین اور شاداب وادی میں رہ کر بھی جلتی رہی
ایک لایعنی تقدیس کے واسطے خون اپنی تمنا کا پیتی رہی

چاند کا عکس لہروںپہ گر کر بکھرتا رہا
ان کی نظروں کے گہرے سمندر میں ، میری محبت یونہی ٹوٹتی او ربکھرتی رہی

صدق و اخلاص کا کچھ پتہ ہی نہ تھا، منکشف یہ ہوا
صرف جھوٹے وقار و نمائش کی خاطر گناہوں سے بچتی رہی

ہر طرف رنگ و نکہت کا سیلاب تھا دعوتِ کیف تھی
ذات کے خول میں بند ، میں اپنی تنہائیوں میں سسکتی رہی

”ہر طرف سبز رنگت کا طوفان ہے کیوں نمایاں تمہیں زرد رنگ میں ہو”
روح کو تازگی ، زندگی کو خوش عزم و ہمت سے ملتی رہی

قول اور فعل کا فرق ثانیؔ ذرا دیکھئے
اتحاد و محبت کا نغمہ لبوں پر رہا ، آگ نفرت کی دل میں دہکتی رہی
This aazad ghazal was published in “Memark”, in November 1973