ग़म में गुज़री खुशी में गुज़र जायेगी

ग़म में गुज़रे खुशी में गुज़र जायेगी
ज़िन्दगी फूल की पंखडी है, बिखर जायेगी

दिल के औराक पर शबनमी याद के इतने छींटे पड़े
धूप ग़म की चढ़ी है, उतर जायेगी

कामरा ज़िन्दगी के है ज़ामिन, अमल और जहद मुसलसिल, खुदी का तहफ्फुज़, शउर जहाँ
ये ग़लत है लि उनकी निगाहे करम संवर जायेगी

ख्वाब के धुंधले साये तले कब तलक ज़िन्दगानी गुज़ारोगे तुम
अब कि अहवोफग़ां बे-असर जायेगी

तर्ज़ुरबाती ग़ज़ल साज़े दिल के सुरों पर ज़रा छेडिये
उसकी आवाज़ से एक खुशबू उड़ेगी जिधर जायेगी

आगही नफ्स की, लाशउर और तहतश-शउर  और शउर
वक्त के हैं तकाज़े, जो समझो उसे जिन्दगानी ए “सानी” संवर जायेगी

This aazad ghazal was published in “Mahanama Ilmo Danish” in April 1973

नित नयी ज़िन्दगी के तकाज़े

नित नयी ज़िन्दगी के तकाज़े हमें भी तो मंज़ूर है, आपको भी मग़र सोचना चाहिये
जज़्बा ए दिल से इन्कार मुमकिन नहीं, बंदगी के लिये नक्शे पा चाहिये

हुस्ने बालीदगी जिनके इकदार में, नक्शे आलम पे वो सिब्त होते हुये दायमी बन गये
लग़ज़िशे पा से घबराइये न ज़रा, तजुर्बों के लिये हौसला चाहिये

दिल के ज़ख्मों का अंदाज़ा कैसे करें अपने ही खोल में बंद रहतें हैं वो
चारासाज़ी व बखियाग़िरी के लिये ज़िन्दगी का वसी तजुर्बा चाहिये

आपकी बात ज़ूलिदा, मफून पेचीदा, तर्ज़े तखातिब मुनासिब नहीं
देखिये ! आपको आईना चाहिये

मुनजमिद बर्फ की सील है इसको पिघलाईये ताकि तखलीक हो एक तूफान की
रहनुमा न सही ! तेज़ रफ्तार हूँ, बर्क पा चाहिये

रंग है,  नूर है, हुस्न है, कैफ है, रौनके अंजुम से गरेज़ा हो क्यूँ
तुम परेशां हो “सानी” बताओ  तुम्हें और क्या चाहिये

This aazad ghazal was published in “Memark” in April 1973.

 

शक

रूह आवारा फिरती रही चारसू
प्यार के वास्ते
रक्स करते हुये खनखनाते हुये खड़खड़ाते हुये
नोट और मालो-ज़र की ज़रूरत पड़ी
अपने दामन में थे कुछ उन्हें दे दिये
लेने वाले मोहब्बत से तकने लगे
रूह अहसास शबनम से मसरूरो शादां हुयी
वक्त जब टल गया –
सर्द मोहरी वही बेवफाई वही –
कज अदाई वही –
जिससे जलती रही –
कर्ब का ज़हर दिल में समोये हुये –
और आगे बढ़ी
मैंने जाना खुलूसो मोहब्बत मताऐ गिरां हैं –
अक़ीदत ग़िरां कद्र है –
पेशकश हुस्न की बारगाह में हुयी
वो ये कहने लगे
ये रियाकार है, इक अदाकार है
सर अकीदत ने पीटा, मोहब्बत की आखों से आंसू बहे –
कर्बो अंदोह का ज़हर घुलता रहा
मैं तडपती रही, रूह मेरी सिसकती रही –
और आगे बढ़ी
मेरे बच्चे खड़े थे, महकती महकती मोहब्बत लिये
उनको बाहों में भरकर यही सोचती रह गयी
ये भी धोका न हों !
रेत का चमचमाता सा चश्मा न हों !
सोचिये
आज ममता भी मशफूक है
सोचिये ! सोचिये !!
روح آوارہ پھرتی رہی چار سو،
پیار کے واسطے
رقص کرتے ہوئے کھنکھناتے ہوئے کھڑکھڑاتے ہوئے
نوٹ اور حال و زر کی ضرورت پڑی
اپنے دامن میں تھے کچھ نہیں دے دئیے
لینے والے محبت سے تکنے لگے
روحِ احساس شبنم سے مسرور و شاداں ہوئی
وقت جب ٹل گیا
سرد مہری وہی بے وفائی وہی
کج ادائی وہی
جس سے جلتی رہی
کرب کا زہر دل میں سموئے ہوئے
اور آگے بڑھی
میں نے جانا خلوص و محبت متاعِ گراں ہیں
عقیدت گرانقد ہے
پیشکش حسن کی بار گہ میں ہوئی
وہ یہ کہنے لگے
یہ ریا کار ہے ، اک ادا کار ہے
سر عقیدت نے پیٹا ، محبت کی آنکھوں سے آنسو بہے
کرب و اندوہ کا زہر گھلتا رہا
میں تڑپتی رہی ، روح میری سسکتی رہی
اور آگے بڑھی
میرے بچے کھڑے تھے ، مہکتی لہکتی محبت لئے
اُن کو باہوں میں بھر کر یہی سوچتی رہ گئی
یہ بھی دھوکہ نہ ہو
ریت کا چم چماتا سا چشمہ نہ ہو!
آج ممتا بھی مشکوک ہے
سوچئے! سوچئے!!
This poem was published in “Shayar” Bombay in April 1973; it was written on 13th January 1973.