प्यार के मुस्तहिक़

दर्सग़ाहों मे ताले
है हंगामा खेज़ी की लहरें रवाँ
बेसुकूनी के बादल घने हो गये
नफ्से नाकारा भड़का रहा है उन्हें
अपने बच्चे हैं ये!
इनकी तहज़ब व तालीम नाकिस रही !
प्यार की प्यास बढ़ती रही दिन-ब-दिन
एक कतरा न उनके सुलगते लबों पर गिरा
माँ की ममता व शफक्कत से महरूम हैं
प्यार उस्ताद का भी ग़ुरेज़ा रहा
इनके मासूम दिल यूं तड़पते रहे
जैसे बिस्मिल कोइ ज़ेरे शमशीर हो
फिर कहीं से बग़ावत की चिंगारी आकर दिमागों पे छाने लगी
शोलाज़न हो गयी
इंतकामी ख़यालों का ग़लबा हुआ
पायी तखरीब व ग़ारतगिरी में पनाह
अपने बच्चे हैं ये! अपनी दौलत हैं ये!!
इनको राज़े मोहब्बत बता दीजिये
आइये और दरसे वफा कीजिये
जिन्दगी का सलीका सिखा दीजिये
अपने बच्चे हैं ये
प्यार के मुसतहिल!
درس گاہوں میں تالے
ہیں ہنگامہ خیزی کی لہریں رواں
بے سکونی کے بادل گھنے ہوگئے
نفس ناکارہ بھڑکا رہا ہے انھیں
اپنے بچے ہیں یہ!
ان کی تہذیب و تعلیم ناقص رہی!
پیار کی پیاس بڑھتی رہی دن بدن
ایک قطرہ نہ ان کے سلگتے لبوں پر گرا
ماں کی ممتا و شفقت سے محروم ہیں
پیار استاد کا بھی گریزاں رہا
ان کے معصوم دل یوں تڑپتے رہے
جیسے بسمل کوی زیر شمشیر ہو
پھر کہیں سے بغاوت کی چنگاری آکر دماغوں پہ چھانے لگی
شعلہ زن ہوگئی
انتقامی خیالوں کا غلبہ ہوا
پائی تخریب و غارت گری میں پناہ
اپنے بچے ہیں یہ! اپنی دولت ہیں یہ!!
ان کو رازِ محبت بتا دیجیے
آئیے اور درسِ وفا دیجیے
زندگی کا سلیقہ سکھا دیجیے
اپنے بچے ہیں یہ
پیار کے مستحق!

This Nazm was published in “Zewar” in February 1973

ज़िन्दगी कर्ब है सोज़ है रक्स है साज़ है

जिन्दगी कर्ब है सोज़ है रक्स है साज़ है
आपकी चश्मे रौशन सा अंदाज़ है

मेरे अहसास छूने लगे हैं तसव्वुर के मिज़राब को आपके
क्यूं परेशान हैं? आपका राज़ भी तो मेरा राज़ है

जिसके फिक़दान का लोग मातम करें
आज भी मुझको इन्सानियत के इस प्यार पर नाज़ है

बेगानी के तारीक साये की लरज़िश नहीं चाहिये
नासाह! इन के लुत्फ व मोहब्बत का आग़ाज़ है

हम बुलायें सरे बज्म एसी रिवायत नहीं !
जी हमारी नहीं आप ही की ये आवाज़ है

ये जहाने फना क्यूं नज़र आ रहा दिलकश व दिलरूबा
“सानी” अब से सनम के तसव्वुर का एजाज़ है
زندگی کرب ہے سوز ہے رقص ہے ساز ہے
آپ کی چشم روشن سا انداز ہے

میرے احساس چھونے لگے ہیں تصور کے مضراب کو آپ کے
کیوں پریشان ہیں؟ آپ کا راز بھی تو میرا راز ہے

جس کے فقدان کا لوگ ماتم کریں
آج بھی مجھ کو انسانیت کے اسی پیار پر ناز ہے

بد گمانی کے تاریک سائے کی لرزش نہیں چاہیے
ناصحا! ان کے لطف و محبت کا آغاز ہے

ہم بلائیں سربزم ایسی روایت نہیں!
جی ہماری نہیں آپ ہی کی یہ آواز ہے

یہ جہانِ فنا کیوں نظر آرہا دلکش و دلربا
ثانی عکس صنم کے تصور کا اعجاز ہے
This azad ghazal was published in “Adraak” in February 1975

रौशनी के वरक

लुटाये गये रौशनी के वरक चारसू
कभी निख़त की है नज़र, आ रहे तैरग़ी के वरक चारसू

आजकल ज़िन्दगी का उफक ज़र्द है
खिज़ाँ की हंसी के वरक चारसू

अजनबी रास्ते, अजनबी मंजिले राहबर का भरोसा नहीं
खो न जायें कहीं ज़िन्दगी के वरक चारसू

फर्द की ज़ात से मेहर इन्सानियत का चमकता रहा
बिखरते रहे इल्म की चाँदनी के वरक चारसू

इक जुनूं खेज़ जज़्बे की तशहीर थी
यूँ तो फैले रहें आगही के वरक चारसू

फलसफा ज़ात का और अना का न मखसूस कर “सानी” इस दौर से
मीरो ग़ालिब से लेकर यहाँ तक खुदी के वरक चारसू
 لٹائے گئے روشنی کے ورق چار سو
کبھی بخت کی ہے نظر آرہے تیرگی کے ورق چار سو

آج کل زندگی کا افق زرد ہے
خزاں کی ہنسی کے ورق چار سو

اجنبی راستے اجنبی منزلیں راہ بر کا بھروسہ نہیں
کھو نہ جائیں کہیں زندگی کے ورق چار سو

فرد کی ذات سے مہر انسانیت کا چمکتا رہا
بکھرتے رہے علم کی چاندنی کے ورق چار سو

اِک جنوں خیز جذبے کی تشہیر تھی
یوں تو پھیلے رہے آگہی کے ورق چار سو

فلسفہ ذات کا اور انا کا نہ مخصوص کر ثانیؔ اس
دور سے
میرؔ و غالبؔ سے لے کر یہاں تک خودی کے ورق چار سو
This azad ghazal was published in the magazine “Shiraza”

सरहद पर जाते हुये महबूब से

मेरे महबूब मेरी जाने तमन्ना रुखसत
मेरे अरमान! मेरी प्यार की दुनिया रुखसत
मैं हूं नाशाद मगर मेरा वतन शाद रहे
मादरे हिंद करे तेरा तकाज़ा रुखसत

मुस्कुराहट मेरी बेजान हुयी जाती है
दिल की दुनिया भी तो सुनसान हुयी जाती है
अपने अश्कों के चिराग़ों से चिराग़ाँ कर लूं
बज़्मे आरास्ता वीरान हुई जाती है

ताज़गी चेहरे पे छायी ग़मे वहशत के लिये
मुझको ये वस्ल मिला था तेरी फुर्कत के लिये
चशमे पुरनम दिले बेताब ग़िरफ्तारे अलम
बारेग़म क्या न उठायें हैं मोहब्बत के लिये

अब सदा शिकवा ए तक़दीर किये जाती हूँ
अपनी मजबूरी व तन्हाई पे थर्राती हूँ
किस तरह ये ग़मे फुर्कत मैं उठाऊं हमदम
तेरी फुर्कत के तसव्वुर से लरज़ जाती हूँ

राहते रूह व जिगर जान ए मोहब्बत रुखसत
मेरी बरबादशुदा दिल की मसर्रत रुखसत
गुलशने “सानी” का शिराज़ा बिखर जायेगा
फिर भी ए जान-ए-जहाँ बज़्म की जीनत रुखसत

میرے محبوب مری جانِ تمنا رخصت
میرے ارمان! میری پیار کی دنیا رخصت
میں ہوں ناشاد مگر میرا وطن شاد رہے
مادرِ ہند کرے تیرا تقاضہ رخصت

مسکراہٹ میری بے جان ہوئی جاتی ہے
دل کی دنیا بھی تو سنسان ہوئی جاتی ہے
اپنے اشکوں کے چراغوں سے چراغاں کرلوں
بزم آراستہ ویران ہوئی جاتی ہے

تازگی چہرے پہ چھائی غم وحشت کے لئے
مجھ کو یہ وصل ملا تھا تری فرقت کے لئے
چشم پُرنم دل بے تاب گرفتارِ الم
بارِ غم کیا نہ اٹھائے ہیں محبت کے لئے

اب سدا شکوہئ تقدیر کئے جاتی ہوں
اپنی مجبوری و تنہائی پہ تھراتی ہوں
کس طرح یہ غم فرقت میں اٹھاؤں ہمدم
تری فرقت کے تصور سے لرز جاتی ہوں

راحتِ روح و جگر جان محبت رخصت
میرے برباد شدہ دل کی مسرت رخصت
گلشن ثانیؔ کا شیرازہ بکھر جائے گا
پھر بھی اے جانِ جہاں بزم کی زینت رخصت
This nazm was published in December 1963 (publication unknown)

मेरी सुबह हो के न हो मुझे है फिराक़ से वास्ता

मेरी सुबह हो के न हो मुझे है फिराक़ यार से वास्ता
शबे ग़म से मेरा मुकाबला दिले बेकरार से वास्ता

मेरी जिन्दगी न संवर सकी मेरे ख्वाब सारे बिखर गये
मैं खिजाँ रसीदा कली हूँ अब मुझे क्या बहार से वास्ता

जो था हाल ज़ार वो बिखर चुकी मगर अब खुशी है ये आपकी
कि जवाबे खत मुझे दें न दें, मुझे इंतिज़ार से वास्ता

मेरे इश्क में ये नहीं रवा कि खुलूस प्यार का लूँ सिला
कहूं क्यूँ मैं आपको बेवफा मुझे अपने प्यार से वास्ता

बड़ी बेखुदी में निकल पड़ी ए “ज़रीना” खैर हो राह की
जहां काफिले लुटे रोज़ो-शब उसी रहगुज़र से वास्ता
مری صبح ہو کہ نہ ہو مجھے ہے فراق یار سے واسطہ
شب غم سے میرا مقابلہ دل بے قرار سے واسطہ

مری زندگی نہ سنور سکی مرے خواب سارے بکھر گئے
میں خزاں رسیدہ کٹی ہوں اب مجھے کیا بہار سے واسطہ

جو تھا حال زار وہ لکھ چکی مگر اب خوشی ہے یہ آپ
کی
کہ جواب خط مجھے دیں نہ دیں، مجھے انتظار سے واسطہ

مرے عشق میں یہ نہیں روا کہ خلوص، پیار کا لوں
صلہ
کہوں کیوں میں آپ کو بے وفا مجھے اپنے پیار سے واسطہ

بڑی بے خودی میں نکل پڑی اے زرینہ ؔخیر ہو راہ کی
جہاں قافلے لٹے روز و شب اسی رہگذار سے واسطہ
This ghazal was published in “Aasar”, Calcutta in February 1961