मेरा फनकार

ब्रुश थामे हुये इज़ल पे झुका जाता है
ज़ुल्फ बिखरी हुयी पेशानी पर
शौक-ए-बे पाया झलकता हुआ रुखसारों से
फिक्र की चंद लकीरें उभरीं
अर्श पैमां है तखय्युल उसका
कोई शाहकार बनायेगा ये !
मेरा बच्चा, मेरी उम्मीदों का मरकज़
मेरा फनकार है ये
मेरी नाकाम तमन्नाओं की तकमील करे
मेरी नाग़ुफ्ता हिकायत
मेरे इफ्तार की अज़्मत ले कर
मेरे इमां की हरारत ले कर
मेरा पैग़ामे मोहब्बत ले कर
अपना शाहकार मुज़य्यन कर ले !!
بُرش تھامے ہوئے ایزل پہ جھکا جاتا ہے
زلف بکھری ہوئی پیشانی پر
شوقِ بے پایاں جھلکتا ہوا رخساروں سے
فکر کی چند لکیریں ابھریں
عرش پیما ہے تخیل اس کا
کوئی شہ کار بنائے گا یہ !
میرا بچہ، مری امیدوں کا مرکز،
مرا فن کار ہے یہ
میری ناکام تمناؤں کی تکمیل کرے
میری نا گفتہ حکایت
مرے افکار کی عظمت لے کر
میرے ایماں کی حرارت لے کر
میرا پیغام محبت لے کر
اپنا شہ کار مزین کرلے!!
This poem was written by Zarina Sani for her 8 year old, who oblivious of his surroundings, was busy drawing.  She clicked his picture, and wrote this poem. It  was published in April 1974 in “Zewar”

इल्तमास उर्दू व हुज़ूरे हिंद

ए अर्ज़े पाक हिंद ! तेरी जाँ-निसार हूँ
पैदा हुयी यहीं
यहीं पलकर जवां हुयी
नस नस में मेरी गंगो-जमन की रवानियाँ
रफत हिमािलया की लताफत चेनाब की
कशमीर की फिज़ाँओं की खुशबू ए अंबरी
शामे अवध का हुस्न
बनारस की ताज़गी
आईना देखकर मुझे महसूस ये हुआ
पैकर मेरा लतीफो जमीलो नफीस है
मैं फक्रे हिंद हूँ
मेरी राहें अज़ीम हैं
यक जहती इत्हाद की ज़िंदा मिसाल हूँ !
मैं बेखबर थी, घात में सैयाद है कहीं
नफरत का दाम हाथ में
खंजर लहूफशां
ए अर्ज़े हिंद !
ये तेरे ग़ारतगरों में था
खुशरंग जामे ज़हर लबों से लगा दिया
मैं पी गयी
मगर न मरी – अब भी सांस है
जिन्दा रहूंगी
चश्मे हैवां का फैज़ है
ए अर्ज़े हिंद !
नानको चिश्ती की सरज़मीं
“सौदा” और “मीर” व “ग़ालिब” व “इक्बाल” के वतन
“चक्बस्त” के “सुरूर” के “महरूम” के चमन
जमूरियत का ताज अहिंसा का बांकपन
मेरा वजूद तुझसे ग़िलामंद हो गया
कैसा सितम है
दर पये आज़ार हैं वही
ज़ुल्फे संवारते थे शबोरोज़ जो मेरी
हस्ती तमाम कर्ब की लहरों पे मुस्तरिब
मुझको गले लगा ले मैं तेरी बहार हूँ
ए अर्ज़े पाके हिंद तेरी जाँनिसार हूँ
اے ارضِ پاک ہند! تیری جانثار ہوں
پیدا ہوئی یہیں
یہیں پل کر جواں ہوئی
نس نس میں میری گنگ و جمن کی روانیاں
رفعت ہمالیہ کی لطافت چناب کی
کشمیر کی فضاؤں کی خوشبوئے عنبریں
شام اودھ کا حسن
بنارس کی تازگی
آئینہ دیکھ کر مجھے محسوس یہ ہوا
پیکر میرا لطیف و جمیل و نفیس ہے
میں فخر ہند ہوں
میری راہیں عظیم ہیں
یک جہتی اتحاد کی زندہ مثال ہوں!
میں بے خبر تھی گھات میں صیاد ہے کہیں
نفرت کا دام ہاتھ میں
خنجر لہو فشاں
اے ارض ہند! یہ تیرے غارت گروں میں تھا
خوش رنگ جامِ زہر لبوں سے لگا دیا
میں پی گئی
مگر نہ مری ۔ اب بھی سانس ہے
زندہ رہوں گی
چشمہئ حیواں کا فیض ہے
اے ارض ہند!
نانک و چشتی کی سرزمیں
سوداؔ اور میرؔ و غالبؔ و اقبالؔ کے وطن
چکبستؔ کے سرورؔ کے محرومؔ کے چمن
جمہوریت کا تاج اہنسا کا بانکپن
میرا وجود تجھ سے گلہ مند ہوگیا
کیسا ستم ہے
در پئے آزار ہیں وہی
زلفیں سنوارتے تھے شب و روز جو میری
ہستی تمام کرب کی لہروں پہ مضطرب
مجھ کو گلے لگا لے میں تیری بہار ہوں
اے ارض پاک ہند تیری جانثار ہوں
This poem dedicated to our beloved country was published in the annual magazine “Mehfil”

उम्मीद

लोग कहते हैं सदा अश्क बहाना होगा
वो तेरे प्यार को हरगिज़ न समझ पायेंगे
वहम है जीत मोहब्बत की हुआ करती है
संग में कैसे मोहब्बत की चमक लायेंगे

नक्शे बातिर की तरह नक्शे मोहब्बत को भी
लौहे दिल से तू मिटा एसा निशां भी न रहे
यही बेहतर है एवाने मोहब्बत के दिये
इस तरह आज बुझा दे कि धुआँ भी न रहे

आज ये पूछती हूँ कोई बता दे मुझको
आब गिरता है तो क्यूँ संग पिघल जाता है
जब कि इन्सान की कोशिश में लहू शामिल हो
फूल वीरान से सेहरा में निकल आता है

सर को साहिल से पटकती हैं मुसलसिल मौजें
संगे साहिल को भी ज़र्रात बना देती हैं
नर्म रफ्तार से नहरों पे हवाऐं चल कर
खसो खाशाक को चुपके से बहा देती हैं

नक्शे बातिल की तरह कैसे मिटा सकती हैं
दिल के आईने में जो नक्श उभर आता है
अपना अंदाज़ बदल देंगे यकीं है मुझको
एक पत्थर भी तराशो तो चमक जाता है
لوگ کہتے ہیں سدا اشک بہانا ہوگا
وہ ترے پیار کو ہرگز نہ سمجھ پائیں گے
وہم ہے جیت محبت کی ہوا کرتی ہے
سنگ میں کیسے محبت کی چمک لائیں گے؟

نقش باطل کی طرح نقش محبت کو بھی
لوح دل سے تو مٹا ایسا نشاں بھی نہ رہے
یہی بہتر ہے کہ ایوانِ محبت کے دئیے
اس طرح آج بجھا دے کہ دھواں بھی نہ رہے

آج یہ پوچھتی ہوں کوئی بتا دے مجھ کو
آب گرتا ہے تو کیوں سنگ پگھل جاتا ہے
جب کہ انسان کی کوشش میں لہو شامل ہو
پھول ویران سے صحرا میں نکل آتا ہے

سر کو ساحل سے پٹکتی ہیں مسلسل موجیں
سنگِ ساحل کو بھی ذرات بنا دیتی ہیں
نرم رفتار سے نہروں پہ ہوائیں چل کر
خس و خاشاک ، کو چپکے سے بہا دیتی ہیں

نقش باطل کی طرح کیسے مٹا سکتی ہیں
دل کے آئینے میں جو نقش ابھر آتا ہے
اپنا انداز بدل دیں گے یقیں ہے مجھ کو
ایک پتھر بھی تراشو تو چمک جاتا ہے
This ghazal was published in “Jam-e-nau” Karachi in February, 1965

बरकते इश्क !

कौन कहता है ग़मे इश्क जिगर कावी है
सोज़िशे अश्क मुसलसल है ज़ियाँकारी है
इश्क का सोज़ ही बनता है रफीके मंज़िल
चश्मे हक बीं के लिये रूह की बेदारी है

आरज़ुओं का लहू, सोज़िशे अश्क पैहम
बादे सहरी हैं ये इन्सान की अज़मत के लिये
इश्क का सोज़े दरूं फन को जिला करता है
राहे पुर-शौक के खतरे हैं रियाज़त के लिये

दरे बस्ता मेरी किस्मत के खुले जाते हैं !
जिस तरह बादे सहर गुंचे शगुफ्ता कर दे !
इस कदर जोशे अमल पाती हूँ दिल में जैसे
कोई हर फूल की रग रग में नशा सा भर दे

आपकी नज़रे इनायत की अता व बरकत
राहे मंज़िल भी मुझे सहल नज़र आती है
ज़ुल्मते शामे मुसीबत की सिमट जायेंगी
अपनी ताबिंदा जबीं ले के सहर आयी है

आप चाहें तो सितारों की चमक भी छू लूं !
इश्के सादिक ने मेरे अज़्म को रफत दी है !
आसमानों की बुलंदी भी कोई बात नहीं !
आपके इश्क ने परवाज़ की कूवत दी है !
کون کہتا ہے غم عشق جگر کا وی ہے
سوزش اشک مسلسل ہے زیاں کاری ہے
عشق کا سوز ہی بنتا ہے رفیق منزل
چشم حق بیں کے لئے روح کی بیداری ہے

آرزؤں کا لہو ، سوزش اشک پیہم
باد سحری ہیں یہ انسان کی عظمت کے لئے
عشق کا سوز دروں فن کی جلا کرتا ہے
راہِ پُر شوق کے خطرے ہیں ریاضت کے لئے

درِ بستہ میری قسمت کے کھلے جاتے ہیں!
جس طرح بادِ سحر غنچے شگفتہ کردے!
اس قدر جوش عمل پاتی ہوں دل میں جیسے
کوئی ہر پھول کی رگ رگ میں نشہ سا بھردے

آپ کی نظر عنایت کی عطا و برکت
راہ منزل بھی مجھے سہل نظر آتی ہے
ظلمتیں شامِ مصیبت کی سمٹ جائیں گی
اپنی تابندہ جبیں لے کے سحر آئی ہے

آپ چاہیں تو ستاروں کی چمک بھی چھو لوں!
عشق صادق نے مرے عزم کو رفعت دی ہے!
آسمانوں کی بلندی بھی کوئی بات نہیں!
آپ کے عشق نے پرواز کی قوت دی ہے!
This ghazal was published in “Jam-e-nau” Karachi in July 1965; it was written on 24th April 1965

शक

रूह आवारा फिरती रही चारसू
प्यार के वास्ते
रक्स करते हुये खनखनाते हुये खड़खड़ाते हुये
नोट और मालो-ज़र की ज़रूरत पड़ी
अपने दामन में थे कुछ उन्हें दे दिये
लेने वाले मोहब्बत से तकने लगे
रूह अहसास शबनम से मसरूरो शादां हुयी
वक्त जब टल गया –
सर्द मोहरी वही बेवफाई वही –
कज अदाई वही –
जिससे जलती रही –
कर्ब का ज़हर दिल में समोये हुये –
और आगे बढ़ी
मैंने जाना खुलूसो मोहब्बत मताऐ गिरां हैं –
अक़ीदत ग़िरां कद्र है –
पेशकश हुस्न की बारगाह में हुयी
वो ये कहने लगे
ये रियाकार है, इक अदाकार है
सर अकीदत ने पीटा, मोहब्बत की आखों से आंसू बहे –
कर्बो अंदोह का ज़हर घुलता रहा
मैं तडपती रही, रूह मेरी सिसकती रही –
और आगे बढ़ी
मेरे बच्चे खड़े थे, महकती महकती मोहब्बत लिये
उनको बाहों में भरकर यही सोचती रह गयी
ये भी धोका न हों !
रेत का चमचमाता सा चश्मा न हों !
सोचिये
आज ममता भी मशफूक है
सोचिये ! सोचिये !!
روح آوارہ پھرتی رہی چار سو،
پیار کے واسطے
رقص کرتے ہوئے کھنکھناتے ہوئے کھڑکھڑاتے ہوئے
نوٹ اور حال و زر کی ضرورت پڑی
اپنے دامن میں تھے کچھ نہیں دے دئیے
لینے والے محبت سے تکنے لگے
روحِ احساس شبنم سے مسرور و شاداں ہوئی
وقت جب ٹل گیا
سرد مہری وہی بے وفائی وہی
کج ادائی وہی
جس سے جلتی رہی
کرب کا زہر دل میں سموئے ہوئے
اور آگے بڑھی
میں نے جانا خلوص و محبت متاعِ گراں ہیں
عقیدت گرانقد ہے
پیشکش حسن کی بار گہ میں ہوئی
وہ یہ کہنے لگے
یہ ریا کار ہے ، اک ادا کار ہے
سر عقیدت نے پیٹا ، محبت کی آنکھوں سے آنسو بہے
کرب و اندوہ کا زہر گھلتا رہا
میں تڑپتی رہی ، روح میری سسکتی رہی
اور آگے بڑھی
میرے بچے کھڑے تھے ، مہکتی لہکتی محبت لئے
اُن کو باہوں میں بھر کر یہی سوچتی رہ گئی
یہ بھی دھوکہ نہ ہو
ریت کا چم چماتا سا چشمہ نہ ہو!
آج ممتا بھی مشکوک ہے
سوچئے! سوچئے!!
This poem was published in “Shayar” Bombay in April 1973; it was written on 13th January 1973.