जंगलों में कहीं

जंगलों में कहीं
इक ग़ज़ाले हंसी
दिलरुबा बन गयी
छा गयी दीदा-औ-दिल पे इक बेखुदी
उसके पीछे चली
मैं तो चलती गयी
रक्स करती हुयी
महवे हैरत हुयी
देख कर एक कस्र दिल आरा की रानाइयाँ
खुशनुमा पत्थरों के सुतूं रंगो निखत के तूफान के सामने ज़िन्दगी सरनगूँ
महज़बीनों का रक्से जुनूँ
मतरबे नग्मा ज़न
मौजे मय गुलफिशाँ
सारा माहौल कैफो सुरूर आश्ना
बर्क गिरफ्तार लम्हों को
चाहा जिरफ्तार कर लूं मगर
हाथ से वो फिसलते गये
इक ख़ला रह गया
खाली खाली निगाहों से
मैं देखती रह गयी !
 جنگلو میں کہیں۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔
    اک غزالِ حسیں
    دلربا بن گیا
    چھاگئی دیدہ و دل پہ اک بے خودی
    اس کے پیچھے چلی میں تو چلتی گئی
    رقص کرتی ہوئی
    محو حیرت ہوئی
    دیکھ کر ایک قصر دل آرا کی رعنائیاں
    خوشنما پتھروں کے ستوں
    رنگ و نکہت کے طوفان کے سامنے زندگی سر نگوں
    مہہ جبینوں کا رقص جنوں
    مطربِ نغمہ زن
    موجِ مے گلفشاں
    سارا ماحول کیف و سرور آشنا
    برق رفتار لمحوں کو
    چاہا گرفتار کرلوں مگر
    ہاتھ سے وہ پھسلتے گئے
    اک خلا رہ گیا
    خالی خالی نگاہوں سے
    میں دیکھتی رہ گئی!
This Nazm was published in “Tahreek” in May 1976 (was written on 7th January 1975)

अहसास

कुछ तो लम्हात हों मेरे अपने
जिनपर हो मुकम्मल कब्ज़ा
कुछ खयालात हों मेरे अपने
मेरा एहसास हो, जज़्बात हों मेरे अपने
ग़ैर का दखल न हो
कोई पूछे न लबों पर है तबस्सुम कैसा?
कोई पूछे न अयाँ चश्म से वीरानी क्यूँ?
सारी दुनिया को तुम्हारी ही नज़र से देखूँ
मेरी अपनी भी नज़र है कि नहीं?
ज़िन्दगी पर मेरा हक़ है कि नहीं?
खुद को बेचा तो नहीं मैने मोहब्बत के एवज़
मैने भी तुमसे मोहब्बत की है
मैंने माना कि हूँ मैं शमा-ए-शबिस्ताने वफा
मेरी फौलादी ए सीरत का भी नज़ारा करो
मुझमें है जू-ए-सुबकसार का नग्मा लेकिन
तेज़ी-ए-सैल का पहलू भी छुपा है मुझमें
क्यों समझते हो पिघल जाऊँगी
मैं कोई मोम की गुड़िया तो नहीं !
जिससे निकले हुये मुद्दत गुज़री
तुम तसव्वुर में उसी वादिये खुशरंग में हो!
    کچھ تو لمحات ہوںمیرے اپنے
    جن پر ہو مکمل قبضہ
    کچھ خیالات ہوں میرے اپنے
    کچھ خیالات ہوں میرے اپنے
    میرا احساس ہو ، جذبات ہوں میرے اپنے
    غیر کو دخل نہ ہو
    کوئی پوچھے نہ لبوں پر ہے تبسم کیسا؟
    کوئی پوچھے نہ عیاں چشم سے ویرانی کیوں؟
    ساری دنیا کو تمہاری ہی نظر سے دیکھوں
    میری اپنی بھی نظر ہے کہ نہیں؟
    زندگی پر میرا حق ہے کہ نہیں؟
    خود کو بیچا تو نہیں میں نے محبت کے عوض
    میں نے بھی تم سے محبت کی ہے
    میں نے مانا کہ ہوں میں شمعِ شبستانِ وفا
    میری فولادیئ سیرت کا بھی نظارہ کرو
    مجھ میں ہے جوئے سبکسار کا نغمہ لیکن
    تیزیئ سیل کا پہلو بھی چھپا ہے مجھ میں
    کیوں سمجھتے ہو پگھل جاؤں گی
    میں کوئی موم کی گڑیا تو نہیں!
    جس سے نکلے ہوئے مدت گزری
    تم تصور میں اُسی وادیئ خوش رنگ میں ہو!
This poem was published in “Sau Baras” in August 1976

ऐ संग-ए-राह

ऐ संग-ए-राह ! आबलापई न दे मुझे
एसा न हो कि कोई राह सुझाई न दे मुझे

सतहे शऊर पर है मेरे शोर इस कदर
अब नग्मा-ए-ज़मीर सुनाई न दे मुझे

इन्सानियत का जाम जहां पाश पाश हो
अल्लाह मेरे एसी खुदाई न दे मुझे

रंगीनियाँ शबाब की इतनी हैं दिल फरेब
बालों पे आती धूप दिखाई न दे मुझे

तर्क-ए-तआलुक्कात पे इसरार था तुझे
अब तो मेरी वफा की दुहाई न दे मुझे

बे-बालों पर हूँ, रास न आयेगी ये फिज़ा
“सानी” कफस से अपनी रिहाई न दे मुझे
اے سنگِ راہ! آبلہ پائی نہ دے مجھے
ایسا نہ ہو کہ راہ سجھائی نہ دے مجھے

سطح شعور پر ہے مرے شور اس قدر
اب نغمہئ ضمیر سنائی نہ دے مجھے

انسانیت کا جام جہاں پاش پاش ہو
اللّٰہ میرے ایسی خدائی نہ دے مجھے

رنگینیاں شباب کی اتنی ہیں دلفریب
بالوں پہ آتی دھوپ دکھائی نہ دے مجھے

ترکِ تعلقات پہ اصرار تھا تجھے
اب تو مری وفا کی دہائی نہ دے مجھے

بے بال و پر ہوں ، راس نہ آئے گی یہ فضا
ثانیؔ نفس سے اپنے رہائی نہ دے مجھے
This ghazal was published in “Pasbaan”, Chandiarh on 26th February, 1979.

शीरीं नग्मा

रूह कुचली थी मेरी ग़म की गिराँबारी से
अशक आखों में छलकते हुये पैमाने से
कर्ब का ज़हर रगो-पै में बसा जाता था
वहम के नाग सरापा को डसे जाते थे
बिस्तरे नर्म पे भी नींद नहीं आती थी
दर्द-अँग़ेज़ थे लम्हे लेकिन
मेरे तखय्युल के तारों को किसी ने छेड़ा
एक शीरीं सी सदा
मुझको मसहूर किये जाती थी
“लौ लगा ले हमसे
अपनी दुनिया-ए-तसव्वुर में बसा ले हमको
ताकि दिल पर जो सनम तूने तराशे
फानी!
ये तुझे सोज़िशे पिन्हाँ के सिवा क्या देंगे
तेरे एवाने मोहब्बत को जिला क्या देंगे?”
ख्वाब से चौंक पड़ी
और ये अहसास हुआ
ये ख़लाई ये फिज़ाई उल्फत
किस तरह जान को तस्कीं होगी
मैं तो नज़्ज़ारों की आदी
मुझे कुर्बत की ज़रूरत होगी
वही नग्मा, वही शीरीं नग्मा
इक साहिर की तरह बनके मुजस्सिम उभरा
“हम तो हर वक्त तेरे पास रहा करते हैं
तेरी शहरग़ से करीं
चशमे बीना की ज़रूरत होगी”
था अजब नूर का आलम, रंगे तक़दीस लिये
इत्र बेज़ी थी फिज़ाओं मे बसे
कैफ-अँगेज़ हवाऐं
रगो-रेशे में उतर जाने को
जैसे बेताब हुयी जाती थीं
अब भी याद है मुझे
वही नग्मा वही शीरीं नग्मा
    روح کچلی تھی مری غم کی گرانباری سے
    اشک آنکھوں میں چھلکتے ہوئے پیمانے سے
     کرب کا زہر رگ و پے میں بسا جاتا تھا
    وہم کے ناگ سراپا کو ڈسے جاتے تھے
    بستر نرم پہ بھی نیند نہیں آتی تھی
    درد انگیز تھے لمحے لیکن
    میرے تخئیل کے تاروں کو کسی نے چھیڑا
    ایک شیریں سی صدا
    مجھ کو مسحور کئے جاتی تھی
    ” لَو لگالے ہم سے
    اپنی دنیائے تصور میں بسا لے ہم کو
    طاقِ دل پر جو صنم تو نے تراشے
    فانی!
    یہ تجھے سوزشِ پنہاں کے سوا کیا دیں گے
    تیرے ایوانِ محبت کو جلا کیا دیں گے”؟
    خواب سے چونک پڑی
    اور یہ احساس ہوا
    یہ خلائی یہ فضائی الفت
    کس طرح جان کو تسکیں ہوگی
    میں تو نظاروں کی عادی
    مجھے قربت کی ضرورت ہوگی!
    وہی نغمہ وہی شیریں نغمہ
    ایک ساحر کی طرح بن کے مجسم ابھرا
    ” ہم تو ہر وقت ترے پاس رہا کرتے ہیں
    تیری شہ رگ سے قریب
    چشم بینا کی ضرورت ہوگی”
    تھا عجب نور کا عالم ، رنگِ تقدیس لئے
    عطر بیزی تھی فضاؤں میں بسے
    کیف انگیز ہوائیں
    رگ و ریشے میں اتر جانے کو
    جیسے بیتاب ہوئی جاتی تھیں
    اب بھی ہے یاد مجھے
    وہی نغمہ وہی شیریں نغمہ
This nazm was published in “Mahanama” Lahore in January 1976.

दिलनवाज़ी का वादा

दिलनवाज़ी का वादा वो करते रहे
शाख से टूट कर हम बिखरते रहे

नौ-ब-नौ राह पर ग़ाम ज़न जब भी कोई हुअा
तंज़ के तीरो-नश्तर रग़ों में उतरते रहे

सिलसिला खैरो-शर का अज़ल से अबद तक है फैला हुआ
इस तसादुम से जौहर निखरते रहेंगे, निखरते रहे

राह के पेचो ख़म में, बुलंदी व पस्ती में इक क़ैफ है
बेसबब हम तो डरते रहे

संगे खारा ही लाये तो कुछ ग़म नहीं काबिले फक्र अादम की तसखीर है
इसलिये मुद्दतों चाँद की सरज़मीं के लिये “सानी” मरते रहे

नौ-ब-नौ- quiet new
ग़ाम – चढ़ना
तंज़ – taunt, ताने
तीरो-नश्तर – arrows and thorns
खैरो-शर – अच्छा-बुरा
अज़ल से अबद तक – from time immemorial to eternity
तसादुम -collision
जौहर – skills (that shine like gems)
पेचो ख़म -complex and twisted
बुलंदी व पस्ती – उपर – नीचे
क़ैफ – exhilaration, सुरूर
संगे खारा – hard and rough stone
तसखीर – जीतना / to overpower

 

This aazad ghazal was published in the magazine “Kohasar” in August 1979