कश्मकश

फिर किसी मोड़ से संगीत की लय आती है
रक्स करते हैं कहीं सागरो मीना जैसे !
निखत ए ग़ुल है कहीं
मस्त गुलशन है कहीं
महकी महकी है हवा
भीनी भीनी सी फिज़ाओं में है खुशबू शामिल –
इक मुकद्दस तनवीर,
इक लताफत हरसू,
मुझको लगता है यही
चश्मे रोशन मेरी हस्ती को है यूँ घेरे हुये
जैसे माँ बच्चे को बाहों में जकड लेती है
और मैं सोच रहीं हूँ तन्हा
ज़ेहन के बंद दरीचों को न खुलने दूँगी
और नकीबाने मोहब्बत को न लकबैक कहूँगी
कब तक?
कब तक?

This nazm was published in “Alfaz” in September 1978

यादें

एहदे माज़ी के झरोखों से चली आतीं हैं
मुस्कुराती हुयी यादें मेरी
गुनगुनाती हुई यादें मेरी
और महसूस ये होता है मुझे
जैसे बंजर सी ज़मीं
कतरा ए अब्र गुहारबार से शादाब बनी
जैसे सेहरा में भटकते हुये इक राही को
चश्मा ए आब मिला
जैसे पामाल तमन्नायें तुरशाह पा कर
फिर तरोताज़ा हुयीं
जैसे तरसीदा कली
मुस्कुराहट से दिलआवेज़ बने
एक लम्हे के लिये
सीना ए सूज़ाँ मेरा
शबनमी याद से मुस्काता है
एक लम्हे के लिये
कंपकंपाती हुयी सहमी हुयी हस्ती में
उन्ही यादों की हलावत में समा जाती है
यही यादें तो मेरी जीस्त का सरमाया हैं !
मुस्कुराती हुयी यादें मेरी
गुनगुनाती हुयी यादें मेरी
عہد ماضی کے جھروکوں سے چلی آتی ہیں
مسکراتی ہوئی یادیں میری
گنگناتی ہوئیں یادیں میری
اور محسوس یہ ہوتا ہے مجھے
جیسے بنجرسی زمیں
قطرہئ ابر گہر بار سے شاداب بنی
جیسے صحرا میں بھٹکتے ہوئے اک راہی کو
چشمہئ آب ملا
جیسے پامال تمنائیں ترشح پاکر
پھر تروتازہ ہوئیں
جیسے ترسیدہ کلی
مسکراہٹ سے دل آویز بنے
ایک لمحہ کے لیے
سینہئ سوزاں میرا
شبنمی یاد سے مسکاتا ہے
ایک لمحہ کے لیے
کپکپاتی ہوئی سہمی ہوئی ہستی میں
انھیں یادوں کی حلاوت میں سما جاتی ہے
یہی یادیں تو مری زیست کا سرمایہ ہیں!
مسکراتی ہوئی یادیں میری
گنگناتی ہوئی یادیں میری
This nazm was published in “Naya Daur” in January 1971; was written on 9/4/1968