हस्ती

मेरी हस्ती की हकीकत क्या है
एक शोला है हवा की ज़द पर
जो भड़कता भी है
जो सर्द भी हो जाता है
या सफीना है कोई
वक्त की लहरों पे रवाँ
अाज तक हस्ती ए मौहूम का इर्फां न हुअा
खुदशनासी व खुदअागाही क्या
नफ्स ए नाकारा तकाज़े तेरे
खुदफरेबी के सिवा कुछ भी नही
कौन समझायेगा हस्ती की हक़ीक़त मुझको
है कोई?
कोई भी है?
میری ہستی کی حقیقت کیا ہے
ایک شعلہ ہے ہوا کی زد پر
جو بھڑکتا بھی ہے
جو سرد بھی ہو جاتا ہے
یا سفینہ ہے کوئی
وقت کی لہروں پہ رواں
آج تک ہستیئ موہوم کا عرفاں نہ ہوا
خود شناسی و خود آگاہی کیا
نفس ناکارہ تقاضے تیرے
خود فریبی کے سوا کچھ بھی نہیں
کون سمجھائے گا ہستی کی حقیقت مجھ کو
ہے کوئی؟
کوئی بھی ہے؟
This free verse written by Dr. Zarina Sani was published in a magazine called “Tehreek” in February 1973.

हस्ती- अस्तित्व, existance
सफीना – कश्ती, boat
मौहूम – काल्पनिक, imaginary
इर्फां – विवेक, wisdom
खुदशनासी-  अपने अाप की पहचान, self recognition
खुदअागाही – अात्मज्ञान, knowledge of soul
नफ्स ए नाकारा- वर्य्थ/मिथ्या जीवन, useless existence
तकाज़े – माँग, demand
खुदफरेबी अातमवंचना, self deception

शक्ल धुधंली सी

शक्ल धुधंली सी है शीशे में निखर जायेगी,
मेरे अहसास की गर्मी से संवर जायेगी

आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन,
चाँद सी रौशनी बालों पे उतर जायेगी

जिन्दगी मर्हला-ए-दार-ओ-रसन हो जैसे
दिल की बेचारगी ता-वक्त सहर जायेगी

ज़ौक तरतीब से थी कोख़ सदफ़ की महरूम
कैसा अंधेरा है ये बात मगर अब्र के सर जायेगी

मोहनी ड़ाल रही है गुलतर की सूरत
ज़द पे आयेगी हवा के वो, बिखर जायेगी

वक्त रफ्तार का बहता हुआ दरिया “सानी”
जिन्दगी आपके साये में नहीं, न सही फिर भी गुज़र जायेगी
           شکل دھندلی سی ہے شیشنے میں نکھر جائے گی
          میرے احساس کی گرمی سے سنور جائے گی

          آج وہ کالی گھٹائوں پہ ہیں نازاں لیکن
          چاند سی روشنی بالوں پہ اتر جائے گی

          زندگی مرحلۂ دار و رسن ہو جیسے
          دل کی بے چارگی تا وقت سحر جائے گی

          ذوق ترتیب سے تھی کوکھ صدف کی محروم
          کیسا اندھیر ہے یہ بات مگر ابر کے سر جائے گی

          موہنی ڈال رہی ہے گل تر کی صورت
          زد پہ آئے گی ہوا کے وہ ، بکھر جائے گی

          وقت رفتار کا بہتا ہوا دریا ثانیؔ
          زندگی آپ کے سائے میں نہیں ، نہ سہی پھر بھی گذر جائے گی
This aazad ghazal was published in the magazine “Kohsaar” in March 1980

* अाज़ाद ग़ज़ल : जब ग़ज़ल के शेरों से मीटर की पाबंदी हटा दी जाती है मगर रदीफ और क़ाफिये की पाबंदी बरकार रखी जाती है.  ड़ा. ज़रीना सानी अाज़ाद ग़ज़ल की समर्थक थीं, अौर उन्होंने कई ऐसी ग़ज़लें लिखीं.

रदीफ: अशअार का वो शब्द जो दोनों मिसरों मे अाता है (शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं)  (जायेगी, अायेगी)

क़ाफीया: वह शब्द जो शेर की हर पंक्ती में रदीफ के पहले अाता है (निखर, संवर, उतर)

मर्हला — destination
दार-ओ-रसन -gallows and prison
सदफ़ – sea shell
महरूम -deprived (here barren -the sea shell is without a pearl)
अब्र- clouds (rain clouds)

मायाजाल

मायाजाल न तोड़ा जाये
लोभी मन मुझको तरसाये

मिल जाये तो रोग है दुनिया
मिल न सके तो मन ललचाये

मेरे आँसू उनका दामन
रेत पे झरना सूखा जाये

शीशे के महलों में हरदम
काँच की चूड़ी खनकी जाये

प्यार मुहब्बत रिश्ते नाते
‘सानी’ कोई काम न आये
مایا جال نہ توڑا جائے
لو بھی من مجھ کو ترسائے

مل جائے تو روگ ہے دنیا
مل نہ سکے تو من للچائے

میرے آنسو اُن کا دامن
ریت پہ جھرنا سوکھا جائے

شیشے کے محلوں میں ہر دم
کانچ کی چوڑی کھنکی جائے

پیار و محبت، رشتے ناطے
ثانیؔ کوئی کام نہ آئے
This free verse was published in “Sau Baras” in August 1976

Dr. Zarina Sani wrote this when her 10-year-old son* once told her that she wrote very tough Urdu, and he could not understand it and that she should perhaps write for the common man.

*http://tariquesani.net/blog/2002/08/05/112/

शबोरोज़ वो ज़रुर रहे

हमारे साथ शबोरोज़ वो ज़रुर रहे
हमारे ज़ेहन की पिन्हाँईयों से दूर रहे

बहार आई थी, खौफे ख़िज़ाँ से लरज़ाँ थे
ख़िज़ाँ के दौर से गुज़रे तो बाशऊर रहे

हमारी तिश्नालबी राज़ बनके राज़ रही
जो कम सवाद थे आमाद ए ज़हूर रहे

हमें भी नाज़ था ज़ब्ते जुनून पर लेकिन
तुम्हारे शहर से गुज़रे तो नामबूर रहे

नयी गज़ल में मुनासिब नही है ए “सानी”
वही उसूल वही गुफ्तगू-वे-तूर रहे
ہمارے ساتھ شب و روز وہ ضرور رہے
ہمارے ذہن کی پنہائیوں سے دور رہے

بہار آئی تھی خوفِ خزاں سے لرزاں تھے
خزاں کے دور سے گزرے تو با شعور رہے

ہماری تشنہ لبی راز بن کے راز رہی
جو کم سواد تھے آمادہئ ظہور رہے

ہمیں بھی ناز تھا ضبطِ جنون پر لیکن
تمھارے شہر سے گزرے تو نابہور رہے

نئی غزل میں مناسب نہیں ہے اے ثانیؔ
وہی اصول وہی گفتگوے طور رہے
This ghazal was published in “Naya Daur” in March 1979

शबोरोज़ – day and night
पिन्हाँ – secrets
खौफे ख़िज़ाँ – fear of autumn
लरज़ां – trembling
तिश्नालबी – प्यासे होंठ
आमाद ए ज़हूर – became visible (Zahoor is manifestation)
गुफ्तगू-वे-तूर – meaningful conversation.

अंदेशा

दौरे माज़ी की सुनहरी दुनिया
जिसमें हक और सदाक़त की हिफाज़त के लिये
कभी मसलूब हुये,
तख्त ए दार कभी
ज़हर का जाम कभी
कभी कोड़ों की सज़ा पायी है
तने नाज़ुक कभी संगसार हुआ
कभी काटों पे धसीटा हमको
आबे शमशीर से भी प्यास बुझाई हमने
आज माज़ी का तसलसुल टूटा
आज है ज़ौके शहादत की कमी,
बल्के िफक़दान कहो
आज इक्तेदार की खातिर हमने
अपना मस्लक भी बदल ड़ाला है
रूहे इन्सां को कुचल ड़ाला है
कोई बतलाये हमें
इसकी सज़ा क्या होगी
           دورِ ماضی کی سنہری دنیا
          جس میں حق او رصداقت کی حفاظت کے لیے
          کبھی مصلوب ہوئے،
          تختۂ دار کبھی
          زہر کا جام کبھی
          کبھی کوڑوں کی سزا پائی ہے
          تنِ نازک کبھی سنگسار ہوا
          کبھی کانٹوں پہ گھسیٹا ہم کو
          آبِ شمشیر سے بھی پیاس بجھائی ہم نے
          آج ماضی کا تسلسل ٹوٹا
          آج ہے ذوقِ شہادت کی کمی،
          بلکہ فقدان کہو
          آج اقتدار کی خاطر ہم نے
          اپنا مسلک بھی بدل ڈالا ہے
          روحِ انساں کو کچل ڈالا ہے
          کوئی بتلائے ہمیں
          اس کی سزا کیا ہوگی
This free verse was published in a Delhi Magzine, Tehrir in October 1979

माज़ी – past
सदाक़त – truthfulness
मसलूब – crucified
तख्त ए दार – फांसी चढ़े (were hanged)
संगसार – throwing a stone
आबे शमशीर – Blood (aab is water, and shamsheer is sword)
तसलसुल -continuation
ज़ौके शहादत -temperament of martyrdom
िफकदान – scarcity /shortage
इक्तेदार – अधिकार /Authority
मस्लक-sect or caste