शबोरोज़ वो ज़रुर रहे

हमारे साथ शबोरोज़ वो ज़रुर रहे
हमारे ज़ेहन की पिन्हाँईयों से दूर रहे

बहार आई थी, खौफे ख़िज़ाँ से लरज़ाँ थे
ख़िज़ाँ के दौर से गुज़रे तो बाशऊर रहे

हमारी तिश्नालबी राज़ बनके राज़ रही
जो कम सवाद थे आमाद ए ज़हूर रहे

हमें भी नाज़ था ज़ब्ते जुनून पर लेकिन
तुम्हारे शहर से गुज़रे तो नामबूर रहे

नयी गज़ल में मुनासिब नही है ए “सानी”
वही उसूल वही गुफ्तगू-वे-तूर रहे
ہمارے ساتھ شب و روز وہ ضرور رہے
ہمارے ذہن کی پنہائیوں سے دور رہے

بہار آئی تھی خوفِ خزاں سے لرزاں تھے
خزاں کے دور سے گزرے تو با شعور رہے

ہماری تشنہ لبی راز بن کے راز رہی
جو کم سواد تھے آمادہئ ظہور رہے

ہمیں بھی ناز تھا ضبطِ جنون پر لیکن
تمھارے شہر سے گزرے تو نابہور رہے

نئی غزل میں مناسب نہیں ہے اے ثانیؔ
وہی اصول وہی گفتگوے طور رہے
This ghazal was published in “Naya Daur” in March 1979

शबोरोज़ – day and night
पिन्हाँ – secrets
खौफे ख़िज़ाँ – fear of autumn
लरज़ां – trembling
तिश्नालबी – प्यासे होंठ
आमाद ए ज़हूर – became visible (Zahoor is manifestation)
गुफ्तगू-वे-तूर – meaningful conversation.