ख़ला

बदन के कैपसूल में
अजीब सा सफूक है भरा हुआ
कसीफ है लतीफ है
ग़लीज़ है नफीस है
सियाह है सफेद है
शररो गुल नफ्स नफ्स
यही है कश्मकश मिले जुले
जो कश्मकश तमाम हो
बदन सिवाय खून के नहीं है कुछ
ख़ला
ख़ला
ख़ला
 بدن کے کیپسول میں
عجیب سا سفوف ہے بھرا ہوا
کثیف ہے لطیف ہے غلیظ ہے نفیس ہے سیاہ ہے سفید ہے
شرر و گل ملے جلے
یہی ہے کشمکش نفس نفس
جو کشمکش تمام ہو
بدن سوائے خوں کے نہیں ہے کچھ
خلا
خلا
خلا
This symbolic poetry ( जदीद) was published in January 1975; publication not known.

यादें

एहदे माज़ी के झरोखों से चली आतीं हैं
मुस्कुराती हुयी यादें मेरी
गुनगुनाती हुई यादें मेरी
और महसूस ये होता है मुझे
जैसे बंजर सी ज़मीं
कतरा ए अब्र गुहारबार से शादाब बनी
जैसे सेहरा में भटकते हुये इक राही को
चश्मा ए आब मिला
जैसे पामाल तमन्नायें तुरशाह पा कर
फिर तरोताज़ा हुयीं
जैसे तरसीदा कली
मुस्कुराहट से दिलआवेज़ बने
एक लम्हे के लिये
सीना ए सूज़ाँ मेरा
शबनमी याद से मुस्काता है
एक लम्हे के लिये
कंपकंपाती हुयी सहमी हुयी हस्ती में
उन्ही यादों की हलावत में समा जाती है
यही यादें तो मेरी जीस्त का सरमाया हैं !
मुस्कुराती हुयी यादें मेरी
गुनगुनाती हुयी यादें मेरी
عہد ماضی کے جھروکوں سے چلی آتی ہیں
مسکراتی ہوئی یادیں میری
گنگناتی ہوئیں یادیں میری
اور محسوس یہ ہوتا ہے مجھے
جیسے بنجرسی زمیں
قطرہئ ابر گہر بار سے شاداب بنی
جیسے صحرا میں بھٹکتے ہوئے اک راہی کو
چشمہئ آب ملا
جیسے پامال تمنائیں ترشح پاکر
پھر تروتازہ ہوئیں
جیسے ترسیدہ کلی
مسکراہٹ سے دل آویز بنے
ایک لمحہ کے لیے
سینہئ سوزاں میرا
شبنمی یاد سے مسکاتا ہے
ایک لمحہ کے لیے
کپکپاتی ہوئی سہمی ہوئی ہستی میں
انھیں یادوں کی حلاوت میں سما جاتی ہے
یہی یادیں تو مری زیست کا سرمایہ ہیں!
مسکراتی ہوئی یادیں میری
گنگناتی ہوئی یادیں میری
This nazm was published in “Naya Daur” in January 1971; was written on 9/4/1968

मौत के इंतज़ार में गुज़री

जिन्दगी खारज़ार में गुज़री
जुस्तजू  ए बहार में गुज़री

कुछ तो पैमाने यार में गुज़री
और कुछ एतबार में गुज़री

मंज़िले ज़ीस्त हमसे सर न हुयी
यादे ग़ेसु ए यार में गुज़री

फूल गिरियां थे हर कली लरजाँ
जाने कैसी बहार में गुज़री

जिन्दगानी तवील थी लेकिन
मौत के इंतज़ार में गुज़री

आप से मिल के जिन्दगी अपनी
जुस्तजू ए करार में गुज़री

जो भी गुज़री बुरी भली “सानी”
आप के इख्तियार में गुज़री
زندگی خار زار میں گزری
جستجوے بہار میں گزری

کچھ تو پیمانِ یار میں گزری
اور کچھ اعتبار میں گزری

منزل زیست ہم سے سر نہ ہوئی
یاد گیسوئے یار میں گزری

پھول گریاں تھے ہر کلی لرزاں
جانے کیسی بہار میں گزری

زندگانی طویل تھی لیکن
موت کے انتظار میں گزری

آپ سے مل کے زندگی اپنی
جستجوے قرار میں گزری

جو بھی گزری بری بھلی ثانیؔ
آپ کے اختیار میں گزری
This ghazal was published in “Naya Daur” in January 1973

कत्ल किया

जिस घनी छांव की आखों में तमन्ना लेकर
तुम को देखा था कभी
अब वो तमन्ना न रही
सर्दमोहरी ने उसे कत्ल किया
और फिर?
कितने तपते हुये सेहराओं से गुज़री हूँ मैं
मेरी आखों में बग़ूलों के कई मंज़र हैं
उम्र से हुस्न का रिश्ता क्या है?
हुस्न आखों की तमन्ना कहिये
कैफो रानाई से कुछ दूर सही
ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जायेगी
अब तो वीरानी भी वीरानी नहीं लगती
मुझको सन्नाटे से वहशत भी नहीं होती है
मैं नहीं चाहती अब
दो घड़ी दर्द की मेहमां होकर
मुन्कता रिश्ता ए जिस्मों जाँ हो
तुम हवा दोगे तो चिंगारी सुलग जायेगी
ये सितम अब न कर – दिलरुबा! जाने जहाँ!!
 جس گھنی چھاؤں کی آنکھوں میں تمنا لے کر
تم کو دیکھا تھا کبھی
اب وہ تمنا نہ رہی
سرد مہری نے اسے قتل کیا
اور پھر؟
کتنے تپتے ہوئے صحراؤں سے گزری ہوں میں
میری آنکھوں میں بگولوں کے کئی منظر ہیں
عمر سے حسن کا رشتہ کیا ہے؟
حسن آنکھوں کی تمنا کہیے
کیف و رعنائی سے کچھ دور سہی
زندگی یونہی گزر جائے گی
اب تو ویرانی بھی ویرانی نہیں لگتی ہے
مجھ کو سنائے سے وحشت بھی نہیں ہوتی ہے
میں نہیں چاہتی اب
دو گھڑی درد کی مہماں ہو کر
منقطع رشتہئ جسم و جاں ہو
تم ہوا دو گے تو چنگاری سلگ جائے گی
یہ ستم اب نہ کر ۔ دلربا! جان جاں!!
This poem was published in “Hamasr” in February 1977

कत्ल करें

आप, जब प्यार को कहते है रियाकारी है
मेरा “मैं” खानों में बंट जाता है
एक कहता है
बजा कहते हैं
दूसरा कहता है : ये झूठ है. झूठ
ये मोहब्बत मेरी ऐसी तो नहीं
जिसमें तूफान हो बस
जिसमें जज़्बात का हीजान हो बस
ये मोहब्बत तो मुकद्दस है बहुत
चाँद सा नूर, सितारों सी चमक रखती है
इसमें शबनम की नमी
फूल की निखत भी है
आफशारों की तरन्नुम रेज़ी
सुबहखंदाँ सा तबस्सुम इसमें
दिले मायूस के वीराने में
मश्अले राह है ये
आपके “मैं” के भी दो पैकर हैं
एक वो है जो मोहब्बत को रिया कहता है
दूसरा मेरी मोहब्बत पे यकीं रखता है
आओ हम मिल के इसे कत्ल करें
जो मोहब्बत को रियाकार कहा करता है
अपनी हस्ती में मुझे ज़म कर लो
जैसे शबनम को किरन पीती है
ता के हमदोशे सुरैया बनकर
मैं जहांने ताब बनूं
और तुम फक्र करो – अपनी हस्ती में मुझे ज़म कर लो

This poem was published in “Tahreek” New Delhi in August 1974