मेरे बच्चों की हंसी

मेरे बच्चों की हंसी
कुलकुल-ए-मीना जैसे
जैसे नग़्मा हो किसी झरने का
जैसे दोशीज़ा के पायल की झनक
जैसे कलियों के चटक़ने की सदा
जैसे रफ्तार-ए-सबा
जैसे खंदा हो सहर
जैसे महबूब की उल्फत की नज़र
इनकी मासूम हंसी
एश अंगेज़ सुकून मुझको अता करती है
मेरा हर दर्द मिटा देती है
ग़म आफ़ाक़ भुला देती है
मेरे बच्चों की हंसी !
میرے بچوں کی ہنسی
قلقل مینا جیسے
جیسے نغمہ ہو کسی جھرنے کا
جیسے دوشیزہ کے پائل کی جھنک
جیسے کلیوں کے چٹکنے کی صدا
جیسے رفتارِ صبا
جیسے خنداں ہو سحر
جیسے محبوب کی الفت کی نظر
اِن کی معصوم ہنسی
عیش انگیز سکوں مجھ کو عطا کرتی ہے
میرا ہر درد مٹا دیتی ہے
غمِ آفاق بھلا دیتی ہے
میرے بچوں کی ہنسی!
This poem was published in “Shayar” Bombay in January 1968


मेरे बच्चे

मेरे बच्चे मेरी राहों पे बिछाये आंखे
बैठे रहतें है कोई प्यार की मूरत जैसे
अपने महबूब की रह तकती हो
उसकी आंखों के दिये
कभी बुझते हैं,  सुलगते हैं कभी
कभी उम्मीद से गुलनार रुखे रोशन है
और कभी खौफ से
छाये जाती है ज़र्दी ए खिज़ाँ
फिर भी कंदीले मोहब्बत की ज़ियापाशी से
इक किरण चारों तरफ फूटती है
ये मेरे प्यार के मख्ज़न हैं, गुलिस्तां मेरे
ये मेरे प्यार की तकमील हैं, मंज़िल मेरी
बाइस-ए- इज़्ज ओ शरफ, ज़ीनत-ए-महफिल मेरी
 میرے بچے مری راہوںپہ بچھائے آنکھیں
بیٹھے رہتے ہیں ، کوئی پیار کی مورت جیسے
اپنے محبوب کی رہ تکتی ہو
اُس کی آنکھوں کے دِیے
کبھی بجھتے ہیں ، سُلگتے ہیں کبھی
کبھی امید سے گلنار رخِ روشن ہے
اور کبھی خوف سے
چھائے جاتی ہے زردیئ خزاں
پھر بھی قندیل محبت کی ضیا پاشی سے
اِک کرن چاروں طرف پھوٹتی ہے
یہ مرے پیار کے مخزن ہیں ،
گلستاں میرے
یہ مرے پیار کی تکمیل ہیں ، منزل میری
باعث عزّوشرف ، زینتِ محفل میری
This nazm was published in “Shayar”, Bombay in January 1968

तिश्ना तमन्ना

जब भी शो-केस में रंगीन खिलौना कोई
मुझको आता है नज़र
दिल मचल जाता है पाने के लिये
मुज़्तरिब एसे बढ़े जाती हूँ
कहरुबा तिनके को जैसे खींचे
(कोई मासूम तमन्ना रही तिश्ना शायद)
दश्ते पुरशौक में थामे हुये पैकेट उसका
एक अजबसर खुशी हो जाती है तारी दिल पर
जैसे मयखानाबदोश आये घटा
और मये-ताब
छलक जाये रगे मीना से
कतरा कतरा रग़ो-रेशे में उतरती जाये
इस तर्बखैज़ घड़ी में अक्सर
खोलना चाहती हूँ
ज़ेहन के बंद दरीचों को, मैं दस्तक दे कर
कौन सी तिश्ना तमन्ना है ?
नहीं याद आता
कुछ भी नहीं याद आता
جب بھی شوکیس میں رنگین کھلونا کوئی
مجھ کو آتا ہے نظر
دل مچل جاتا ہے پانے کے لیے
مضطرب ایسے بڑھے جاتی ہوں
کہر با تنکے کو جیسے کھینچے
(کوئی معصوم تمنا رہی تشنہ شاید)
دست پُر شوق میں تھامے ہوئے پیکٹ اس کا
اک عجب سر خوشی ہوجاتی ہے طاری دل پر
جیسے میخانہ بدوش آئے گھٹا
اور مئے ناب
چھلک جائے رگِ مینا سے
قطرہ قطرہ رگ و ریشے میں اترتی جائے
اس طرب خیز گھڑی میں اکثر
کھولنا چاہتی ہوں
ذہن کے بند دریچوں کو ، میں دستک دے کر
کون سی تشنہ تمنا ہے؟
نہیں یاد آتا
کچھ بھی نہیں یاد آتا
This nazm was published in “Tehreek” in February 1974

सारे जहां का दर्द

मैंने माना कि ये लम्हात हंसीं होते हैं
कीमती, बेशबहा
और तुम चाहते हो
एसे लम्हात में फिक्रों का कोई दखल न हो
मेरी रग रग से नशा सा फूटे
रुख पे हलकी सी हया की सुर्खी
रक्स करती हो मसर्रत की किरन आरिस पर
थरटराहट हो लबों पर जैसे
पंखडी फूल की शबनम की तरावश से हिले
खुदफरामोशी का आलम छाये
और मैं ?
साकितो-सामित
जैसे पत्थर हो कोई
मेरे हमदम ये तकाज़े हैं तुम्हारे फितरी
मैं भी मजबूर हूं सोचो तो सही
आपने आहसास के शीशे को तोडूं कैसे
जिसमें आते हैं नज़र अक्स कई !
मेरी माँ बेवा है
मग़्मूम रहा करती है
उसके आंसू की नमी
दिल की गहराईमें होती हुयी
रग रग में समां जाती है
एक सोज़िश सी बिखर जाती है जिस्मों जाँ में
और मैं माज़ी की शादाब फिज़ाओं में पनाह लेती हूँ
उसका हंसता हुआ चेहरा
रौनकें कितनी बहारों की फिदा थीं जिसपर
उसकी आखों में मोहब्बत के दिये जलते थे
उसकी आगोश में मेरी हस्ती खो जाती थी
और अचानक मुझे वालिद का खयाल आता है
मौत के साये तले
जिनके माथे को छुआ था मैने
अब भी उस लम्स की याद आती है
सर्द रौ मेरी रगो-पै में उतर जाती है
मेरी हस्ती मुझे बिखरी सी नज़र आती है
मेरे हमदम !
एक खातून है तनहा
जिसके चेहरे पे तबस्सुम की नकाब होती है
सोज़े दिल फिर भी अयाँ होता है
उसकी उल्फत पे ज़माने ने सितम ढाया है
उसको शिकवा है ज़माने से बहुत
उससे रिश्ता नहीं खूनी मेरा
फिर भी महबूब सी लगतीं है मुझे
उसका ग़म रूह को तड़पाता है
यही होती है तमन्ना मेरी
उसका ग़म घोल के पी लूं जैसे
शिवशंकर ने ज़हर मथ के समंदर का पिया
उसके चेहरे पर मसर्रत की ज़ियाबारी हो
जिससे हस्ती हो मुनव्वर मेरी
एसे ही कितने नज़र आतें हैं चेहरे मुझको
अपने एहसास के शीशे को मैं कैसे तोड़ूं ?
میں نے مانا کہ یہ لمحات حسیں ہوتے ہیں
قیمتی بیش بہا
اور تم چاہتے ہو
ایسے لمحات میں فکروں کا کوئی دخل نہ ہو
میری رگ رگ سے نشہ سا پھوٹے
رُخ پہ ہلکی سی حیا کی سرخی
رقص کرتی ہو مسرت کی کرن عارض پر
تھرتھراہٹ ہو لبوں پر ، جیسے
پنکھڑی پھول کی شبنم کی تراوش سے ہلے
خود فراموشی کا عالم چھائے
اور میں؟
ساکت و صامت
جیسے پتھر ہو کوئی
میرے ہمدم یہ تقاضے ہیں تمہارے فطری
میں تو مجبور ہوں سوچو تو سہی
اپنے احساس کے شیشے کو میں توڑوں کیسے؟
جس میں آتے ہیں نظر عکس کئی!
میری ماں بیوہ ہے
مغموم رہا کرتی ہے
اس کے آنسو کی نمی
دل کی گہرائی میں ہوتی ہوئی
رگ رگ میں سما جاتی ہے
ایک سوزش سی بکھر جاتی ہے جسم و جاں میں
اور میں ماضی کی شاداب فضاؤں میں پناہ لیتی ہوں
اس کا ہنستا ہوا چہرہ
رونقیں کتنی بہاروں کی فدا تھیں جس پر
اس کی آنکھوں میں محبت کے دئیے جلتے تھے
اس کی آغوش میں ہستی مری کھو جاتی تھی
اور اچانک مجھے والد کا خیال آتا ہے
موت کے سائے تلے
جن کے ماتھے کو چھوا تھا میں نے
اب بھی اس لمس کی یاد آتی ہے
سرد رَو میری رگ و پے میں اتر جاتی ہے
میری ہستی مجھے بکھری سی نظر آتی ہے
میرے ہمدم!
ایک خاتون ہے تنہا
جس کے چہرے پہ تبسم کی نقاب ہوتی ہے
سوزِ دل پھر بھی عیاں ہوتا ہے
اس کی الفت پہ زمانے نے ستم ڈھایا ہے
اس کو شکوہ ہے زمانے سے بہت
اس سے رشتہ نہیں خونی میرا
پھر بھی محبوب سی لگتی ہے مجھے
اس کا غم روح کو تڑپاتا ہے
یہی ہوتی ہے تمنا میری
اس کا غم گھول کے پی لوں جیسے
شیو شنکر نے زہر متھ کے سمندر کا پیا
اس کے چہرے پہ مسرت کی ضیا باری ہو
جس سے ہستی ہو منور میری
ایسے ہی کتنے نظر آتے ہیں چہرے مجھ کو
اپنے احساس کے شیشے کو میں کیسے توڑوں؟
This nazm was published in “Aajkal” in August 1975;  it was written on 4th January 1975.

वादी ऐ होश में अंधेरा है

वादी ऐ होश में अंधेरा है
लौट जा दिल अभी सवेरा है

दिल के आंगन में कोई दीप जले
हर तरफ ज़ुल्मतों का डेरा है

है अदम से वजूद फिर से अदम
जिन्दगी का हसीन फेरा है

मेरी हर शय से आपको नफरत
आपका हर अजीज़ मेरा है

बीन बजती सुनाई देती है
बसे पर्दा कोई संपेरा है

याद गेसू ए यार में गुज़रे
वहशतों का घना अंधेरा है

कैसे खुद आगही मिले “सानी”
आरज़ुओं का सख्त घेरा है !
وادی ہوش میں اندھیرا ہے
 لوٹ جا دل ابھی سویا ہے

دل کے آنگن میں کوئی دیپ جلے
ہر طرف ظلمتوں کا ڈیرہ ہے

ہے عدم سے وجود پھر سے عدم
زندگی کا حسین پھیرا ہے

میری ہر شئے سے آپ کو نفرت
آپ کا ہر عزیز میرا ہے

بین بجتی سنائی دیتی ہے
پس پردہ کوئی سپیرا ہے

یاد گیسوے یار میں گزرے
وحشتوں کا گھنا اندھیرا ہے

کیسے خود آگہی ملے ثانیؔ
آرزوؤں کا سخت گھیرا ہے!
This ghazal was published in “Memark” in August 1970