आप, जब प्यार को कहते है रियाकारी है
मेरा “मैं” खानों में बंट जाता है
एक कहता है
बजा कहते हैं
दूसरा कहता है : ये झूठ है. झूठ
ये मोहब्बत मेरी ऐसी तो नहीं
जिसमें तूफान हो बस
जिसमें जज़्बात का हीजान हो बस
ये मोहब्बत तो मुकद्दस है बहुत
चाँद सा नूर, सितारों सी चमक रखती है
इसमें शबनम की नमी
फूल की निखत भी है
आफशारों की तरन्नुम रेज़ी
सुबहखंदाँ सा तबस्सुम इसमें
दिले मायूस के वीराने में
मश्अले राह है ये
आपके “मैं” के भी दो पैकर हैं
एक वो है जो मोहब्बत को रिया कहता है
दूसरा मेरी मोहब्बत पे यकीं रखता है
आओ हम मिल के इसे कत्ल करें
जो मोहब्बत को रियाकार कहा करता है
अपनी हस्ती में मुझे ज़म कर लो
जैसे शबनम को किरन पीती है
ता के हमदोशे सुरैया बनकर
मैं जहांने ताब बनूं
और तुम फक्र करो – अपनी हस्ती में मुझे ज़म कर लो
This poem was published in “Tahreek” New Delhi in August 1974