ग़ज़ल क्या है – ड़ा. अर्शद जमाल

जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता हैं कि ग़ज़ल क्या हैं तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड जाता हैं। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफाज़ का एक बेहतरीन गुंचा या मज़्मुआ हैं? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त हैं, आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मन में एक प्रश्न उभरता हैं कि क्या यह सच हैं! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय, मधुर, दिलकश औऱ रसीला अंदाज़ हैं मगर यह भी उतना ही सच हैं कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल चर्चा का एक विषय भी बनी रही हैं। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड देती हैं औऱ दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में कुछ ऐसी भावनाएं पैदा करती हैं कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इसे ‘नंग-ए -शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद शमीम इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाख़ान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि, ‘ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी हैं’, यानी इसे जड से उखाड फेंकना चाहिये। वैसे तो ‘ग़ालिब’ भी यह कहते हैं कि-

बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल।
कुछ और चाहिये वसुअत मेरे बयां के लिये। ।

(‘मेरे मन की उत्कट भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने में ग़ज़ल का पटल बडा ही संकीर्ण हैं। मुझे साफ साफ कहने के लिये किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यक्ता हैं’।)

उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं आलोचक रशीद अहमद सिद्दीक़ी साहब ग़ज़ल को ‘आबरू-ए-शायरी’ बडे फख्र के साथ कहते हैं। शायद यही सब बातें हैं कि ग़ज़ल आज तक क़ायम हैं और सामान्यत: सभी वर्गों में काफी हद तक पसंद की जाती हैं।

ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब हैं औरतों से अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ हैं माशूक से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बडी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी हैं। आप कहते हैं कि, ‘जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते भागते किसी ऐसी झाडी में फंस जाता हैं जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती हैं। उसी करूण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रगट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श हैं’।

शुरूआत की ग़ज़लें कुछ इसी अंदाज़ की थीं। लगता था मानों वे स्त्रियों के बारे में ही लिखी गई हों। जैसे-

ख़ूबरू ख़ूब काम करते हैं।
इक निगहसू ग़ुलाम करते हैं। ।
-वली दकनी

या

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखडी एक गुलाब की सी हैं।
– मीर

लेकिन जैसे जैसे समय बीता ग़ज़ल का लेखन पटल बदला, विस्तृत हुआ और अब तो ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं हैं जिस पर ग़ज़ल न लिखी गई हो।

सिगरेट जला के मैं जो ज़रा मुत्मइन हुआ।
चारों तरफ से उसको बुझाने चली हवा। ।
– मिद्हतुल अख़्तर

सिगरेट, गिलास, चाय का कप और नन्हा लैंप।
सामाने-शौक़ हैं ये बहम मेरी मेज़ पर। ।
-ज़हीर ग़ाज़ीपुरी

ग़ज़ल का विश्लेषण –

ग़ज़ल शेरों से बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना ग़लत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कविताएं हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।

मत्ला-
ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनों मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘क़ाफिया’ होता हैं। अगर ग़ज़ल के दूसरे सेर की दोनों पंक्तियों में भी क़ाफिया हो तो उसे ‘हुस्ने-मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता हैं।

क़ाफिया-
वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ के पहले आये उसे ‘क़ाफिया’ कहते हैं। क़ाफिया बदले हुए रूप में आ सकता हैं। लेकिन यह ज़रूरी हैं कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर तर, मर, डर, अथवा मकां, जहां, समां इत्यादि।

रदीफ-
प्रत्येक शेर में ‘क़ाफिये’ के बाद जो शब्द आता हैं उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ एक होती हैं। कुछ ग़ज़लों में रदीफ नहीं होती। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ ग़ज़ल’ कहा जाता हैं।

मक़्ता-
ग़ज़ल के आखरी शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आख़री शेर’ ही कहा जाता हैं। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं। निम्नलिखित ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।

कोई उम्मीद बर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती। । १

मौत का एक दिन मुअय्यन हैं।
नींद क्यूं रात भर नहीं आती। । २

आगे आती थी हाले दिल पे हंसी।
अब किसी बात पर नहीं आती। । ३

हम वहां हैं जहां से हमको भी।
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती। । ४

काबा किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’।
शर्म तुमको मगर नहीं आती। । ५

इस ग़ज़ल का ‘क़ाफिया’ बर, नज़र, भर, पर, ख़बर, मगर हैं। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ’ “नहीं आती” है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी हैं। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य हैं। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ’ और ‘क़ाफिया’ हैं। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलाएगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ हैं।

बहर, वज़्न या मीटर (meter)
शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बहर नापी जाती हैं। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती हैं। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बहरों में से किसी एक में होती हैं-
१. छोटी बहर-
अहले दैरो-हरम रह गये।
तेरे दीवाने कम रह गये। ।

२. मध्यम बहर
उम्र जल्वों में बसर हो यो ज़रूरी तो नहीं।
हर शबे-गम की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं। ।

३. लंबी बहर-
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं।
बात होती गुलों की तो सह लेते हम अब तो कांटो पे भी हक़ हमारा नहीं। ।

हासिले-ग़ज़ल शेर-
ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल शेर’ कहलाता हैं।

हासिलें-मुशायरा ग़ज़ल-
मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़ज़ल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़ज़ल’ कहते हैं।

ग़ज़ल का इतिहास-
फारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य-संकलन (दीवान) प्रकाशित हुआ हैं, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। आप दकन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फारसी के अलावा उर्दू और उस वक़्त की दकनी बोली भी शामिल थी।

पिया बाज पयाला पिया जाये ना।
पिया बाज यक तिल जिया जाये ना। ।

कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया। दकन के लगभग तमाम शायरों की ग़ज़लें बिल्कुल सीधी और सुगम शब्दों के माध्यम से हुआ करतीं थीं।

पहला दौर-
वली के साथ साथ उर्दू शायरी दकन से उत्तर की ओर आई। यहां से उर्दू शायरी का पहला दौर शुरू होता हैं। उस वक़्त के शायर आबरू, नाजी, मज़्मून, हातिम इत्यादि थे। इन सब में वली की शायरी सब से अच्छी थी। इस दौर में उर्दू शायरी में दकनी शब्द काफी हद तक कम हो गये थे। इसी दौर के आख़िर में आने वाले शायरों के नाम इस प्रकार हैं। मज़हर जाने-जानाँ, सादुल्ला ‘गुलशन’, ख़ान ‘आरज़ू’ इत्यादि। यक़ीनन इन सब ने मिलकर उर्दू शायरी को अच्छी तरक़्क़ी दी। मिसाल के तौर पर उनके कुछ शेर नीचे दिये गये हैं-

ये हसरत रह गई किस किस मज़े से ज़िंदगी करते।
अगर होता चमन अपना, गुल अपना, बाग़बां अपना। ।
– मज़हर जाने-जानां

ख़ुदा के वास्ते इसको न टोको।
यही एक शहर में क़ातिल रहा हैं। ।
– मज़हर जाने-जानां

जान, तुझ पर कुछ एतबार नहीं।
कि ज़िंदगानी का क्या भरोसा हैं। ।
– ख़ान आरज़ू

दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं ‘मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता हैं। इस दौर के अन्य शायरों में मीर ‘दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी मशहूर था। इस ज़माने में उच्च कोंटि की ग़ज़लें लिखी गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाज़ुकी या नज़ाकतों को संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।

देख तो दिल कि जां से उठाता हैं।
ये धुआं सा कहां से उठता हैं। ।

दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये।
पंखडी इक गुलाब की सी हैं। ।

‘मीर’ इन नीमबाज़ आंखों में।
सारी मस्ती शराब की सी हैं। ।

इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं।

वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे। इसी समय ‘मुसहफी’ औऱ ‘इंशा’ की आपसी नोंक झोंक के कारण उर्दू शायरी की गंभीरता कम हुई। ‘जुर्अत’ ने बिल्कुल हलकी-फुलकी और कभी कभी सस्ती और अश्लील शायरी की। इस ज़माने की शायरी का अंदाज़ा आप इन अशआर से लगा सकते हैं-

किसी के महरमे आबे रवां की याद आई।
हुबाब के जो बराबर कभी हुबाब आया। ।

दुपटे को आगे से दुहरा न ओढों।
नुमुदार चीज़ें छुपाने से हासिल। ।

लेकिन यह तो हुई ‘इंशा’, ‘मुसहफी’ और ‘जुर्अत’ की बात। जहां तक लकनवी अंदाज़ और बयान का सवाल हैं, उसकी बुनियाद ‘नासिख’ और ‘आतिश’ ने डाली। दुर्भाग्यवश इन दोनों की शायरी में भी हृदय और मन की कोमल तरल भावनाओं का बयान कम हैं और शारीरिक उतार-चढाव, बनाव-सिंगार और लिबास का वर्णन ज़्यादा हैं। उर्दू शायरी अब दो अंदाज़ों में बट गयी, ‘लखनवी’ और ‘देहलवी’। दिल्ली वाले जहां आशिक और माशूक के हृदय की गहराईयों में झांक रहे थे, वहां लखनऊ वाले महबूब के जिस्म, उसकी ख़ूबसूरती बनाव-सिंगर और नाज़ों-अदा पर फिदा हो रहे थे। दिल्ली और लखनऊ में शायरी जब इस मोड पर थी, उसी समय दिल्ली में ‘ज़ौक़’, ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ उर्दू ग़ज़ल की परंपराओं का आगे बढाने में जुटे हुए थे। यह कहना ग़लत न होगा कि ‘ग़ालिब’ ने ग़ज़ल में दार्शनिकता भरी, ‘मोमीन’ ने कोमलता पैदा की और ‘ज़ौक़’ ने भाषा को साफ सुथरा, सुगम और आसान बनाया। लिजिये इन शायरों के कुछ शेर पढिये –

गमे हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज।
शमा हर रंग में जलती हैं सहर होने तक। – ग़ालिब

तुम मेरे पास होते हो गोया।
जब कोई दूसरा नहीं होता। । – मोमिन

लाई हयात आये, कज़ा ले चली, चले।
अपनी ख़ुशी न आये, न अपनी ख़ुशी चले। । – ज़ौक़

इन तीनों महान शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था-

कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। ।
-बहादुरशाह ज़फर

१८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, फैज़ाबाद  और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।

यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा। ।

‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं।

लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है। ।
-हसरत

ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई।

इन शायरों के बाद नई नस्ल के शायरों में फिराक़, जज़्बी, मजाज़, जांनिसार अख्तर, शकील, मजरूह, साहिर, हफीज़ होशियारपुरी, क़तील शिफाई, इब्ने इंशा, फैज़ अहमद फैज़ और अन्य अनेकों का ज़िक्र किया जा सकता हैं। ‘हफीज़ जालंधरी’ और ‘जोश मलीहाबादी’ के उल्लेख के बग़ैर उर्दू शायरी की इतीहास अंधूरा रहेगा। यह सच हैं कि इन दोनें शायरों ने कविताएं (नज़्में) ज़्यादा लिखीं औऱ ग़ज़लें कम। लेकिन इनका लिखा हुआ काव्य संग्रह अत्यंत उच्च कोटि का हैं। ‘जोश’ की एक नज़्म, जो दूसरे महायुद्ध के वक़्त लिखी गई थी और जिसमें हिटलर की तारीफ की गई थी, अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा उनको जेल भिजवाने का कारण बनी।

फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया।

मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या ग़म हैं।
कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। ।

जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं।

ग़ज़ल का इतिहास रोज़ लिखा जा रहा हैं। नये शायर ग़ज़ल के क्षितिज पर रोज़ उभर रहे हैं, और उभरते रहेंगे। अपने फन से और अपनी शायरी से ये कलाकार ग़ज़ल की दुनिया को रौशन कर रहे हैं।

कुछ शायरों ने ग़ज़ल को एक नया मोड दिया हैं। इन ग़ज़लों में अलामती रूझान यानी सांकेतिक प्रवृत्ति (Symbolic hint or suggestion) प्रमुख रूप से होता है। उदाहरण के लिये निम्न अशआर पढिये-

वो तो बता रहा था बहोत दूर का सफर।
ज़ंजीर खींच कर जो मुसाफिर उतर गया। ।
साहिल की सारी रेत इमारत में लग गई।
अब लोग कैसे अपने घरौंदे बनायेंगे। ।
-मिदहतुल अख़्तर

इन शायरों में से कुछ शायरों के नाम हम यहां दे रहे हैं। कुंवर महिंदर सिंह बेदी, ज़िया फ़तेहआबादी, प्रेम वारबरटनी, मज़हर इमाम, अहमद फराज़, निदा फ़ाज़ली, सुदर्शन फ़ाकिर, नासिर काज़मी, परवीन शाकिर, अब्दुल हमीद अदम, सूफी तबस्सुम, ज़रीना सानी, मिदहतुल अख़्तर, अब्हुल रहीम नश्तर, प्रो. युनुस ख़लिश क़ादरी, ज़फ़र कलीम, शाहिद कबीर, प्रो. मंशा, जलील साज़, शहरयार, बशीर बद्र, वहीद अख़्तर, महबूब राही, इफ्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी, शबाब ललित, कृष्ण मोहन, याद देहलवी, ज़हीर ग़ाज़ीपुरी, यूसूफ जमाल, राज नारायण राज़, गोपाल मित्तल, उमर अंसारी, करामत अली करामत, उनवान चिश्ती, मलिक़ ज़ादा मंज़ूर, ग़ुलाम रब्बानी ताबां, जज़्बी इत्यादि।

ग़ज़ल लेखन में एक और नया प्रयोग शुरू किया गया हैं जिसका उल्लेख करना यहां अनुचित न होंगा। इन प्रायोगिक ग़ज़लों में शेर की दोनों पंक्तियों से मीटर की पाबंदी हटा दी गई हैं, लेकिन रदीफ और काफियों की पाबंदी रखी गई हैं। इन ग़ज़लों को आज़ाद ग़ज़ल कहा जाता हैं।

फूल हो, ज़हर में डूबा हुआ, पत्थर न सही।
दोस्तो मेरा भी कुछ हक़ तो हैं, छुपकर सही, खुलकर न सही। ।
यूं भी जी लेते हैं जीने वाले।
कोई तसवीर सही, आपका पैकर न सही। ।
-मज़हर इमाम

शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।
आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी। ।
– ज़रीना सानी

फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। ग़ज़ल के रसिया और ग़ज़ल गायक इन ग़ज़लों को पसंद करते हैं या नहीं यह भविष्य ही सिध्द करेगा। निम्नलिखित शायर ‘आज़ाद ग़ज़ल’ के समर्थक हैं। ज़हीर ग़ज़ीपुरी, मज़हर इमाम, यूसुफ जमाल, डॉ. ज़रीना सानी, अलीम सबा नवीदी, मनाज़िर आशिक़ इत्यादि।

संगीत को त्रिवेणी संगम कहा जाता हैं। इस संगम में तीन बातें, शब्द, तर्ज़ और आवाज़ अत्यंत अनिवार्य हैं। ग़ज़ल की लोकप्रियता इस बात की पुष्टी करती है कि अच्छे शब्द के साथ अच्छी तर्ज़ और मधुर आवाज़ अत्यंत अनिवार्य है

इसीलिये यह नि:संकोच कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल को दिलकश संगीत में ढालने वाले संगीतकार और उसे बेहतरीन ढंग से रसिकों के आगे पेश करने वाले कलाकार गायक अगर नहीं होते तो ग़ज़ल यक़ीनन क़िताबों में ही बंद रह कर घुट जाती, सिमट जाती।

– डॉ. अर्शद जमाल
पोरवाल कौलेज
कामठी

Ammi’s 76th birth anniversary

Shair May 2012
Cover of Shair, May 2012 issue.

Ammi’s 76th birth anniversary. One year to the launch of http://www.zarinasani.org

In past one year I managed to get all her books transcribed in Hindi and they are currently being digitized.

Shair, the oldest urdu magazine carried a shumara (commemorative issue) on Dr. Zarina Sani in May 2012. I am indebted to Janab Iftehekar Imam Siddiqui saheb and Janab Noman Siddiqui Saheb of Mahanama Shair who were instrumental in getting this issue published. The entire issue can be DOWNLOADED

I have been enriched in many ways while transcribing Ammi’s life works and getting to know people who knew her as a person is very valuable to me. I was fortunate to speak with Janab Karamat Ali Karamat saheb yesterday who narrated many anecdotes from the time of his association with Ammi and Abbaji. I consider myself blessed to be able to speak with people of such high standing and learn something from them.

I also got in touch with the family members of Dr. Safdar Aah in year that went by. Dr. Aah was Ammi’s guide and mentor and her work on Dr. Aah had been commended widely. As a tribute to Ammi and Dr. Aah, I and Tajwar Afsar, grandson of Dr. Aah have decided to work on gathering material to offer him our tributes via Mahanama Shair.

I do hope I have a lot to report next year. We love you, Ammi.

— Swati Sani

Articles, Reviews and Essays

उर्दू शायरी की हिंदुस्तानी रूह (शिराज़ा, १९६५)

मंटो की किरदार निग़ारी (शायर, १९६४)

उर्दू शायरी में जदीदियत की रिवायत

मोमिन का रश्क (नयादौर, १९६५)

खोई हुयी जन्नत

लाखों सज्दे किये एक विर्द की तस्कीं के लिये
हसरत व यास से एक एक नज़र को देखा
सिर्फ एक लफ्ज़ मोहब्बत है मौसूम अपना
शाम देखी न कभी और सहर को देखा

खुदफरेबी से यह समझा के तुम्हें भूल गयी
नक्श पत्थर पे बना हो तो मिटायें क्यूंकर
संगे दिल प्यार की गर्मी से पिघल जाता है
यह इनायत कि नज़र दिल को हुयी आज खबर

आपके दिल में मोहब्बत है यही क्या कम है
हिज्र के दर्द को हमराज़ बना लूंगी मैं
अब ज़माना मेरे ज़ख्मों पे न मरहम रख्खे
दिल की सोज़िश को ही दमसाज़ बना लूंगी मैं

आपका प्यार है कंदील मेरे राहों की
आपका तर्ज़े तख़ातुब है मोहब्बत परवर
आखरिश मिल गयी खोई हुयी जन्नत मुझको
ज़ुल्मते ग़म से निकल आयी है ताबिंदा सहर
لاکھوں سجدے کئے اک درد کی تسکیں کے لئے
حسرت و یاس سے ایک ایک نظر کو دیکھا
صرف اک لفظ محبت ہے موقف اپنا
شام دیکھی نہ کبھی اور نہ سحر کو دیکھا

خود فریبی سے یہ سمجھا کہ تمھیں بھول گئی
نقش پتھر پہ بنا ہو ، تو مٹائیں ، کیوں کر؟
سنگ دل ، پیار کی گرمی سے پگھل جاتا ہے
یہ عنایت کی نظر ، دل کو ہوئی آج خبر!

آپ کے دل میں محبت ہے ، یہی کیا کم ہے
ہجر کے درد کو ، ہم راز بنا لوں گی میں
اب زمانہ مرے زخموں پہ نہ مرہم رکھے
دل کی سوزش ہی کو دم ساز بنالوں گی میں

آپ کا پیار ہے ،قندیل مری راہوں کی
آپ کا طرز تخاطب ہے محبت
آخرش مل گئی کھوئی ہوئی جنت مجھ کو
ظلمت غم سے نکل آئی ہے تابندہ سحر
This Aazad Nazm was published in Mahanama Zewar, Patna in February 1974

सज्दे – माथा टेका
विर्द -बात को दोहराना
तस्कीं -सांत्वना
हसरत व यास – निराशा
मौफूक – नाम (namesake)
खुदफरेबी – खुद को झठा बहलाना (self deception)
संगे दिल -पत्थर दिल
इनायत – र्कपा (kindness)
हिज्र – जुदाई
हमराज़ – दोस्त
सोज़िश – जलन (burning)
दमसाज़ – दोस्त
तर्ज़े तखातुब – आपकी संबोधित करने की शैली (तर्ज़ -ढ़ंग, तखातुब – संबोधन)
आखिरश – अंत में (finally)
परवर – सबसे ऊँचा (great, above all)
ज़ुल्मते ग़म – ग़म का अंधेरा
ताबिंदा – रोशन

Safdar Aah bhaisiyat Shair

Safdar Aah Bhaisiyat Shayar

Safdar Aah Bhaisiyat Shair was published in 1979. The book is a critical survey and selection of six poetic works of Safdar Aah “Sitapuri” by Dr. Zarina Sani

Safdar Aah “Sitapuri” was well known shair and lyricist for several movies in the 40’s and 50’s. His notable works include “Amir Khusro bhaisiyat Hindi Shair”, “Rubiyate Zamzama” “Tulsidas aur Ramcharitmanas” and songs for several hindustani movies, notable among them are songs from movies like Aurat(1942), Omar Khyyam (1946),  Roti (1946),Vishwas (1943), Maan (1954) and Pehli Nazar (1945) Singer Mukesh sung his first song “Dil jalta hai to jalne de” for this movie.

Devnagri transcription of the book will soon be available.

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